मुर्शिदाबाद की घटना से सबक लेने की जरूरत
देवानंद सिंह
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में वक़्फ़ अधिनियम को लेकर उभरे विरोध प्रदर्शनों का अचानक हिंसक हो जाना न केवल राज्य की क़ानून-व्यवस्था के लिए एक चुनौती बन गया है, बल्कि यह घटनाक्रम हमें यह सोचने पर भी मजबूर करता है कि धार्मिक भावनाओं, राजनीतिक हितों और प्रशासनिक सुस्ती का मेल जब किसी संवेदनशील मुद्दे से जुड़ता है, तो कैसे एक क्षेत्र सामाजिक असंतुलन की आग में झुलस सकता है।
पिछले दो-तीन दिनों से मुर्शिदाबाद के जंगीपुर, धुलियान और सूती इलाकों में संशोधित वक़्फ़ कानून के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे थे। परंतु शुक्रवार दोपहर के बाद हालात बिगड़ते चले गए और देखते ही देखते प्रदर्शन हिंसक हो गए। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पों के साथ आगजनी, लूटपाट और तोड़फोड़ की घटनाएं सामने आने लगीं। ट्रेन सेवाएं प्रभावित हुईं, राष्ट्रीय राजमार्गों को अवरुद्ध किया गया, और दुकानों से लेकर निजी संपत्तियों तक को निशाना बनाया गया। अब तक तीन लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 150 से अधिक लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है।
वक़्फ़ अधिनियम एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा भारत में एक संवेदनशील और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण कानून है, जो मुस्लिम समुदाय की धार्मिक, परोपकारी और समाजसेवी संपत्तियों से संबंधित होता है। वक़्फ़ संपत्तियां आमतौर पर दान स्वरूप दी जाती हैं और इन्हें धार्मिक या सामाजिक कार्यों के लिए उपयोग में लाया जाता है।
हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित या संशोधित वक़्फ़ अधिनियम को लेकर देश के कई हिस्सों में विरोध देखने को मिला है। मुर्शिदाबाद में जो आंदोलन उभरा है, वह भी इसी संदर्भ में है। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि नया क़ानून पारदर्शिता की आड़ में धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप कर सकता है और समुदाय की आत्मनिर्भरता को प्रभावित कर सकता है। वहीं सरकार का दावा है कि यह संशोधन वक़्फ़ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया है, हालांकि वक़्फ़ क़ानून को लेकर आक्रोश की एक वैचारिक और धार्मिक पृष्ठभूमि हो सकती है, परंतु प्रदर्शन का हिंसा में तब्दील होना प्रशासनिक विफलता और कुछ हद तक राजनीतिक रणनीतियों की भी पोल खोलता है।
मुर्शिदाबाद में लगातार प्रदर्शन हो रहे थे, और शुक्रवार तक उनके उग्र रूप लेने की आशंका को भांपना प्रशासन की जिम्मेदारी थी। परंतु लगता है कि स्थानीय प्रशासन इस आंदोलन की गहराई को आंकने में विफल रहा। नतीजतन, स्थिति हाथ से निकल गई और सुरक्षा बलों को देर से तैनात किया गया।
विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी द्वारा केंद्रीय बलों की मांग और एनआईए जांच की अपील राजनीतिक दखल को दर्शाती है। भाजपा नेता दिलीप घोष द्वारा यह आरोप लगाना कि मुर्शिदाबाद को पश्चिम बंगाल से अलग करने की साज़िश चल रही है, बेहद गंभीर आरोप है, जो सामाजिक विभाजन को और गहरा कर सकता है। ऐसे वक्त में इस प्रकार के बयान ज़मीनी हालात को और अधिक अस्थिर कर सकते हैं। कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि हिंसा खासतौर पर हिंदू बहुल इलाकों में की गई। यदि, यह सच है तो यह सांप्रदायिक तनाव की ओर इशारा करता है, जो राज्य की सामाजिक संरचना को गंभीर रूप से क्षति पहुंचा सकता है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सोशल मीडिया पर यह स्पष्ट किया कि संशोधित वक़्फ़ अधिनियम राज्य में लागू नहीं होगा। उनका यह बयान एक ओर केंद्र सरकार की जवाबदेही को इंगित करता है, वहीं दूसरी ओर प्रदर्शनकारियों को आश्वस्त करने का प्रयास भी है। उनका कहना था कि मेरी हर धर्म के लोगों से शांति बनाए रखने की अपील है। धर्म के नाम पर किसी तरह के गैर धार्मिक आचरण में न पड़ें।
यह अपील भले ही संवेदनशील है, लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या सरकार इस मुद्दे पर पहले से ही स्पष्ट संदेश नहीं दे सकती थी, जिससे प्रदर्शन उग्र रूप न लेते?
केंद्रीय गृह मंत्रालय की भूमिका और जवाबदेही
केंद्रीय गृह सचिव गोविंद मोहन ने राज्य पुलिस महानिदेशक से हालात की जानकारी वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से ली और 300 से अधिक बीएसएफ़ जवानों को तैनात किया गया। इसके अलावा पांच अतिरिक्त कंपनियां भी भेजी गईं। यह एक जरूरी कदम था, लेकिन यह भी स्पष्ट करता है कि राज्य और केंद्र के बीच समन्वय की कमी पहले से रही होगी। यदि, समय रहते दोनों सरकारें संवाद करतीं तो शायद हालात इस कदर नहीं बिगड़ते।
लोगों का कहना है कि पुलिस और प्रशासन शुरू में नदारद थे। कई दुकानें, एंबुलेंस और बसें जला दी गईं, और यहां तक कि सोने की दुकानों तक को निशाना बनाया गया। स्थानीय लोगों का डर और ग़ुस्सा, दोनों जायज़ हैं। एक ओर उन्हें अपने धार्मिक अधिकारों पर खतरा महसूस हो रहा है, तो दूसरी ओर हिंसा के कारण उनके जीवन और जीविका पर भी संकट मंडरा रहा है। ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार ने वक़्फ़ क़ानून को लेकर व्यापक संवाद किया था? क्या यह सुनिश्चित किया गया था कि समुदाय विशेष को पर्याप्त जानकारी और संतुष्टि मिले? क्या राज्य सरकार ने इस संवेदनशील मुद्दे पर पहले से निगरानी और चेतावनी दी थी?
क्या विपक्ष द्वारा की गई केंद्रीय बलों की मांग केवल राजनीतिक लाभ के लिए की गई या वास्तव में सुरक्षा की आवश्यकता थी? क्या मीडिया रिपोर्टिंग संतुलित रही, या उसने तनाव को और बढ़ाया?
वर्तमान परिस्थितियों में समाधान की दिशा में काम करना चाहिए। सबसे पहले, केंद्र सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि संशोधित वक़्फ़ अधिनियम का उद्देश्य क्या है और यह किस प्रकार से समुदाय की भलाई के लिए है। इसके लिए धार्मिक नेताओं, वक़्फ़ बोर्ड और सामाजिक संगठनों के साथ खुला संवाद आवश्यक है।
दूसरा, राज्य सरकार को स्थिति नियंत्रण में लाने के लिए निरपेक्ष कार्रवाई करनी होगी। हिंसा करने वाले चाहे किसी भी धर्म, जाति या राजनीतिक विचारधारा से हों, उन पर कड़ी कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।
राजनीतिक दलों को जिम्मेदार बयान देने चाहिए। हालात को और भड़काने के बजाय, उन्हें मिलकर शांति बनाए रखने की अपील करनी चाहिए। मीडिया और सोशल मीडिया पर निगरानी आवश्यक है।
अफ़वाहें और भ्रामक सूचनाएं अक्सर हिंसा को हवा देती हैं। अतः पुलिस को सोशल मीडिया पर नज़र रखनी चाहिए और गलत सूचनाओं को तत्काल खंडन करना चाहिए। कुल मिलाकर, मुर्शिदाबाद की हिंसा यह बताती है कि जब शासन, प्रशासन और राजनीति मिलकर ज़िम्मेदारी नहीं निभाते, तब जनता के आक्रोश का विस्फोट केवल सड़कों पर नहीं होता, बल्कि समाज की आत्मा को भी घायल करता है।
धार्मिक कानूनों के क्रियान्वयन से पहले संवाद और जागरूकता ज़रूरी है। हर समुदाय को यह विश्वास दिलाना होगा कि उनकी धार्मिक आस्था और अधिकार सुरक्षित हैं। वहीं, कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए कठोर कदम उठाने से हिचकना नहीं चाहिए। यह सिर्फ वक़्फ़ क़ानून का सवाल नहीं है। यह भारत के उस सामाजिक ताने-बाने का भी सवाल है, जो विविधताओं के बावजूद एकजुटता में विश्वास करता है और अगर हम समय रहते न चेते, तो मुर्शिदाबाद की आग देश के अन्य हिस्सों में भी फैल सकती है और तब उसका उपचार केवल कानून नहीं, बल्कि हमारी नैतिक और सामाजिक चेतना ही कर सकेगी।