बगावत के बाद इस्तीफे को लेकर उलझन क्यों
देवानंद सिंह
पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने जिस तरह पार्टी से बगावत की, उससे झारखंड की सियासत में उथल-पुथल मच गई थी, राजधानी दिल्ली तक झारखंड की सियासत की चर्चा थी, लेकिन बगावत के बाद जेएमएम और मंत्री पद से इस्तीफा क्यों नहीं और कब ? जब राह जुदा चुनने का मन ही बना लिया था तो अब उलझन कैसी? यह सवाल सिर्फ राजनीतिक विश्लेषकों के मन में ही नहीं, बल्कि आम जनता के मन में भी है।
चंपई सोरेन की बगावत से लग रहा था कि झारखंड की राजनीतिक दशा और दिशा बदल सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मामले का डैमेज कंट्रोल कर सभी राजनीतिक विशेषज्ञों को चौंका दिया। मुख्यमंत्री पद से हटा दिए जाने से नाराज़ चंपई सोरेन ने जिस तरह अपनी नाराजगी व्यक्त की, उससे उनकी राह जुदा होने का पूरा संकेत मिल रहा था। उन्होंने अपनी असंतोषजनक स्थिति का सार्वजनिक रूप से विरोध किया। उनकी बगावत को जैसे-जैसे समय बीत रहा है, यह सवाल भी गहराता जा रहा है कि जब आप पार्टी की नीतियों से इतने असंतुष्ट हैं, तो इस्तीफा क्यों नहीं देते? चंपाई सोरेन ने नई पार्टी के ऐलान कर, सोचा था कि झामुमो पार्टी की नींद उड़ा देंगे, लेकिन आज वे खुद फंस कर रह गए हैं।
अब न तो पद उनसे छूट पा रहा है और न ही पार्टी।
चंपाई सोरेन ने जिस तल्खी के साथ नई पार्टी बनाने की घोषणा की, उससे उन्हें लगा था कि झारखंड मुक्ति मोर्चा में खलबली मचेगी, उनके मान मनौव्वल का दौर शुरू हो जायेगा, लेकिन ऐसा कहीं कुछ होता दिख नहीं रहा है। झामुमो ने भी जैसे चंपाई सोरेन के मुद्दे पर एक लंबी लकीर खींच ली, लिहाजा, ये चंपाई सोरेन को उनकी हैसियत बताने के लिए तो काफी लग रहा है। ये संदेश भी जेजएमएम देने की कोशिश कर रही है कि पार्टी में उनके रहने और नहीं रहने से कोई असर नहीं पड़ने वाला है, इससे चंपई सोरेन की चिंताएं बढ़ रही हैं। जो अब चारों तरफ चर्चाएं हो रही हैं कि बागी हुए बगावत किए तो, आखिर अब इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे हैं ?
कहीं उनके मन में यह सवाल तो नहीं कि क्या उनका इस्तीफा उनकी राजनीतिक स्थिति को कमजोर तो नहीं कर देगा? क्या इस्तीफा देने से उनका प्रभाव समाप्त तो नहीं हो जाएगा। शायद इसी वजह से उन्होंने इस्तीफा देने का विचार टाल दिया हो ? इस सब सवालों के बीच एक बात तो स्पष्ट लगती है कि राजनीति में इस प्रकार की अस्थिरता अक्सर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और शक्ति के खेल का हिस्सा होती है, भले ही जनप्रतिनिधि यह कहें कि उनके दिमाग में जनता के हित हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं हमेशा जनता के हित से ऊपर रहे हैं, क्योंकि बगावत का मतलब केवल विरोध या असंतोष नहीं होता, बल्कि यह सत्ता की लड़ाई होती है।
जब कोई नेता अपनी पार्टी की नीतियों के खिलाफ जाता है, तो यह समझना आवश्यक होता है कि वह व्यक्तिगत और राजनीतिक लाभ की तलाश करना चाहता है। इसी क्रम में चंपई सोरेन ने अपने बगावती रुख को एक रणनीतिक चाल के रूप में इस्तेमाल किया, लेकिन लगता है कि चंपई सोरेन का यह कदम अब उन्हीं के लिए मुसीबत बनने लगा है, क्योंकि न तो वह इस्तीफा दे रहे हैं और न ही जेएमएम द्वारा उन्हें मनाए जाने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में, चंपई सोरेन का इस्तीफा न देना, बताता है कि वह सत्ता का लालच नहीं छोड़ना चाहते और दूसरा जेएमएम अगर नहीं मना रहा है तो उससे जेएमएम उन्हें यह संदेश देना चाहती है कि अगर, आप चले भी जाएंगे तो हमें कोई फरक नहीं पड़ने वाला है।
चंपई सोरेन ने जिस अंदाज में कदम बढ़ाया है, जाहिर है अब उनका कदम पीछे खींचना भी मुश्किल ही लगता है। राजनीतिक पंडित भी मानते हैं कि जेएमएम के दिग्गज नेता बागी बन गए हैं, लेकिन वह अपने नए गुट के लिए जेएमएम को नहीं तोड़ पा रहे हैं। चंपई सोरेन ने जब दिल्ली की राह पकड़ी थी तो उनके साथ कम से कम चार से छ: विधायकों के रहने की संभावना जताई गई थी, लेकिन अब यह स्पष्ट हो गया है कि अभी कोई विधायक उनका साथ देने को आगे नहीं आ रहा है, ऐसे में उनका महत्वाकांक्षी कदम अब उनके लिए ही संकट खड़ा करने वाला बन गया है। इसीलिए अब सवालों की गेंद उनके पाले में है कि बागी हुए बगावत किए, तो इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे हैं ?