एक ग़ज़ल आपकी नज़र..
फिर ग़लत मेरा सोचना निकला
क्या समझता था और क्या निकला
वो भी शामिल था क़त्ल में मेरे
ये भी रिश्ता क़रीब का निकला
दर्द मेरे का भी इलाज़ नहीं
मर्ज़ उसका भी लादवा निकला
उसको इस ज़ाविये से कब देखा
बेवफ़ा निकला बावफ़ा निकला
उम्र भर मंजिलों को तरसे हैं
रास्ता ख़ूब रास्ता निकला
ज़िन्दगी खप गई अंधेरों में
कैसे सूरज से राबिता निकला
आईने सौ बदल के देखे गए
एक चेहरा ही बारहा निकला
दस्तकें दीं किवाड़ खड़काये
शैल अबके भी लापता निकला।