कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी पर विजय शाह के बयान से सवालों के घेरे में राजनीतिक संस्कृति
देवानंद सिंह
भारतीय लोकतंत्र की ताक़त उसकी संस्थाओं में निहित है। चाहे वह संसद हो, मीडिया हो या फिर न्यायपालिका, लेकिन जब किसी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति सार्वजनिक मंच से ऐसी टिप्पणी करता है, जो न सिर्फ एक महिला अधिकारी का अपमान करती है, बल्कि सेना जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की गरिमा को भी ठेस पहुंचाती है, तो सवाल केवल उस व्यक्ति के बयान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरी राजनीतिक संस्कृति पर उठता है।
मध्य प्रदेश के जनजातीय कार्य मंत्री विजय शाह का कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी को लेकर दिया गया बयान ऐसा ही एक प्रकरण है, जिसने भारतीय राजनीति की गिरती हुई मर्यादा, न्यायपालिका की सक्रियता और आदिवासी नेतृत्व की व्याख्या के नाम पर की जा रही राजनीतिक तुष्टिकरण की प्रवृत्तियों को एक बार फिर उजागर कर दिया है।
8 बार विधायक रह चुके और मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले की हरसूद विधानसभा सीट से निर्वाचित विजय शाह ने 12 मई को महू के रायकुंडा गांव में एक कार्यक्रम के दौरान भारतीय सेना की पहली महिला इंफेंट्री अधिकारी कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी को “आतंकवादियों की बहन” कह डाला। उनका यह बयान रिकॉर्ड हुआ और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। जो टिप्पणी उन्होंने की, वह न केवल आपत्तिजनक थी, बल्कि भारतीय सेना के समर्पण, साहस और समावेशी चरित्र का भी अपमान थी।
यह विडंबना ही है कि जिस महिला अधिकारी ने जाति, धर्म, और सामाजिक सीमाओं से परे जाकर राष्ट्रधर्म निभाया, उसे राजनीतिक मंच से इस तरह बदनाम किया गया। यह प्रकरण उस समय और अधिक गंभीर हो गया, जब न्यायपालिका को इसमें स्वतः संज्ञान लेना पड़ा।
14 मई को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य के पुलिस महानिदेशक को विजय शाह के खिलाफ एफ़आईआर दर्ज करने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि पुलिस द्वारा दर्ज की गई प्राथमिकी में गंभीर धाराओं का अभाव है और यह दर्शाता है कि राजनीतिक प्रभाव अब तक पुलिस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है। मामला अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां विजय शाह ने हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी कठोर लहज़े में टिप्पणी की और न्यायपालिका की अपेक्षित संवेदनशीलता दिखाई। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने टिप्पणी करते हुए कहा, आप किस तरह का बयान दे रहे हैं? संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से एक स्तर की मर्यादा की अपेक्षा की जाती है।
यह फटकार केवल विजय शाह तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह भारतीय राजनीति में मर्यादा के क्षरण की ओर एक इशारा था।
सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट की इस सख़्ती के बाद विजय शाह ने माफ़ी मांगी और कहा कि उनका बयान अनजाने में दिया गया था, जिससे हर समाज की भावनाएं आहत हुई हैं। उन्होंने कर्नल सोफ़िया को देश की बहन बताया और उनका सगी बहन से भी अधिक सम्मान करने की बात कही, हालांकि, यह क्षणिक पश्चात्ताप उस गहरे राजनीतिक रोग को नहीं छिपा सकता, जिसमें ऐसे बयान बार-बार दोहराए जाते हैं और जब विवाद बढ़ता है, तब ‘माफी’ को एक औपचारिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। कांग्रेस पार्टी ने इस पूरे मामले में तीखी प्रतिक्रिया दी और बीजेपी से विजय शाह को बर्खास्त करने की मांग की।
यह पहला अवसर नहीं है, जब विजय शाह ने आपत्तिजनक या दोहरे अर्थों वाले बयान दिए हों। विजय शाह का महिलाओं पर अपमानजनक टिप्पणी करने का इतिहास रहा है। 2013 में, झाबुआ के एक कार्यक्रम में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पत्नी पर विवादास्पद टिप्पणी की थी, जिसके बाद उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था। 2018 में, शिक्षक दिवस पर उन्होंने बयान दिया था कि अगर ,आज गुरु के सम्मान में ताली नहीं बजाओगे, तो अगले जन्म में घर-घर जाकर ताली बजानी पड़ेगी।” इस पर किन्नर समुदाय ने विरोध जताया था। वहीं, 2022 में, कांग्रेस नेता राहुल गांधी को निशाना बनाते हुए उन्होंने कहा था कि ” अगर कोई लड़का 50-55 साल का हो जाए और शादी न करे, तो लोग पूछते हैं कि कोई कमी तो नहीं है? यह बताता है कि उनका राजनीतिक व्यवहार केवल एक व्यक्तिगत भूल नहीं, बल्कि एक स्थायी प्रवृत्ति का परिचायक है, जिसे पार्टी नेतृत्व ने समय-समय पर नजरअंदाज़ किया है।
विजय शाह गोंड आदिवासी समुदाय से आते हैं और मकड़ाई रियासत के राज परिवार से उनका संबंध है। उन्होंने 1990 से लेकर 2023 तक हरसूद विधानसभा से लगातार जीत हासिल की है। उनके भाई संजय शाह भी विधायक रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि बीजेपी में आदिवासी नेतृत्व के अभाव ने विजय शाह को एक ‘अप्रतिस्पर्धी प्रतीक’ बना दिया है। गिरिजा शंकर के अनुसार, जातीय सामाजिक आधार वाले नेताओं को साथ रखना भारतीय राजनीति की मजबूरी बन चुकी है। यह कांग्रेस, बीजेपी या अन्य दलों के लिए समान रूप से लागू होता है। यही कारण है कि बार-बार विवादों के बावजूद विजय शाह की राजनीतिक स्थिति बनी रही है। दलों के लिए सामाजिक संतुलन की राजनीति, कई बार चरित्र और नैतिकता की अनदेखी के साथ आती है।
यह पूरा प्रकरण केवल एक नेता की असंवेदनशीलता का मामला नहीं है। यह हमारे समाज की सामूहिक चेतना, सेना के प्रति जन-मानस के सम्मान और न्यायपालिका की सक्रियता की भी परीक्षा है। कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी जैसी अधिकारी हमारे समाज के लिए आदर्श हैं। वह भारतीय सेना में शामिल होकर उस परंपरा को तोड़ती हैं, जिसमें सेना एक पुरुष-प्रधान क्षेत्र समझी जाती रही है। उनके सम्मान की रक्षा न केवल उनके लिए, बल्कि उन तमाम महिलाओं के लिए ज़रूरी है जो राष्ट्रसेवा के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहती हैं।
न्यायपालिका ने इस मामले में जो तत्परता दिखाई है, वह भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए शुभ संकेत है, लेकिन क्या इतनी ही सक्रियता हमारे राजनीतिक दलों में भी देखी जाएगी? यह समय है कि राजनीतिक दल अपने भीतर जवाबदेही की संस्कृति विकसित करें। केवल चुनाव जीतना या जातीय समीकरण साधना ही राजनीति का उद्देश्य नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधियों के भाषणों और आचरण में मर्यादा, संवेदनशीलता और विवेक होना चाहिए। यदि, हम केवल सत्ता की गणनाओं में उलझे रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब जनतंत्र की आत्मा केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाएगी।
विजय शाह का मामला हमें कई मोर्चों पर सोचने को मजबूर करता है कि राजनीतिक मर्यादा, न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका, सामाजिक समरसता, और आदिवासी नेतृत्व के नाम पर हो रहे राजनीतिक संरक्षण की पुनर्व्याख्या हो। यह ज़रूरी है कि लोकतंत्र केवल संस्थाओं के आधार पर नहीं, बल्कि संस्थाओं को चलाने वाले लोगों की नैतिकता और उत्तरदायित्व के बल पर जीवित रहे। कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी केवल एक सैन्य अधिकारी नहीं, बल्कि भारतीय नारी शक्ति की प्रतीक हैं। यदि, उनकी गरिमा पर आघात होता है, तो यह पूरे देश की गरिमा पर प्रश्नचिन्ह है, और ऐसे में माफ़ी एक औपचारिकता नहीं, बल्कि आत्मालोचना का वास्तविक आधार होनी चाहिए।