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    Home » इलाहाबाद हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, पत्नी-बच्चों की देखभाल में अक्षम मुस्लिम को दूसरी शादी का अधिकार नहीं
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    इलाहाबाद हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, पत्नी-बच्चों की देखभाल में अक्षम मुस्लिम को दूसरी शादी का अधिकार नहीं

    Devanand SinghBy Devanand SinghOctober 12, 2022No Comments3 Mins Read
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    प्रयागराज. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि इस्लामिक कानून एक पत्नी के रहते मुस्लिम व्यक्ति को दूसरी शादी करने का अधिकार देता है, लेकिन उसे पहली पत्नी की मर्जी के खिलाफ कोर्ट से साथ रहने के लिए बाध्य करने का आदेश पाने का अधिकार नहीं है. कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा पत्नी की सहमति के बगैर दूसरी शादी करना पहली पत्नी के साथ क्रूरता है. कोर्ट यदि पहली पत्नी की मर्जी के खिलाफ पति के साथ रहने को बाध्य करती है तो यह महिला के गरिमामय जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन होगा.

     

    इस दौरान कोर्ट ने कुरान की सूरा 4 आयत 3 के हवाले से कहा कि यदि मुस्लिम अपनी पत्नी व बच्चों की सही देखभाल करने में सक्षम नहीं है तो उसे दूसरी शादी करने की इजाजत नहीं होगी. कोर्ट ने परिवार अदालत संतकबीर नगर द्वारा पहली पत्नी हमीदुन्निशा उर्फ शफीकुंनिशा को पति के साथ उसकी मर्जी के खिलाफ रहने के लिए आदेश देने से इनकार करने को सही करार दिया और फैसले व डिक्री को इस्लामिक कानून के खिलाफ मानते हुए रद्द करने की मांग में दाखिल प्रथम अपील खारिज कर दी. यह फैसला जस्टिस एसपी केसरवानी और जस्टिस राजेन्द्र कुमार की खंडपीठ ने

    अजीजुर्रहमान की अपील पर दिया.

    मुसलमानों को खुद पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी से बचना चाहिए

    कोर्ट ने कहा कि जिस समाज में महिला का सम्मान नहीं, उसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता. महिलाओं का सम्मान करने वाले देश को ही सभ्य देश कहा जा सकता है. कोर्ट ने कहा मुसलमानों को स्वयं ही एक पत्नी के रहते दूसरी से शादी करने से बचना चाहिए. कोर्ट ने कहा एक पत्नी के साथ न्याय न कर पाने वाले मुस्लिम को दूसरी शादी करने की स्वयं कुरान ही इजाजत नहीं देता. कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों का हवाला दिया और कहा कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्रत्येक नागरिक को गरिमामय जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है. अनुच्छेद-14 सभी को समानता का अधिकार देता है और अनुच्छेद-15(2) लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने पर रोक लगाता है.

     

    पर्सनल लॉ के नाम पर मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता

    कोर्ट ने कहा कि कोई भी व्यक्तिगत कानून या चलन संवैधानिक अधिकारों को उल्लंघन नहीं कर सकता. कोर्ट ने कहा पर्सनल लॉ के नाम पर नागरिकों को संवैधानिक मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. जीवन के अधिकार में गरिमामय जीवन का अधिकार शामिल हैं. कोई भी मुस्लिम पत्नी-बच्चों की देखभाल नहीं कर सकता तो उसे पहली पत्नी की मर्जी के खिलाफ दूसरी से शादी करने का अधिकार नहीं है. यह पहली पत्नी के साथ क्रूरता है. कोर्ट भी पहली पत्नी को पति के साथ रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकती.

     

    यह है पूरा मामला

    मालूम हो कि अजीजुर्रहमान व हमीदुन्निशा की शादी 12 मई 1999 में हुई थी. वादी पत्नी अपने पिता की एकमात्र जीवित संतान है. उसके पिता ने अपनी अचल संपत्ति अपनी बेटी को दान कर दी. वह अपने तीन बच्चों के साथ 93 वर्षीय अपने पिता की देखभाल करती है. बिना उसे बताये पति ने दूसरी शादी कर ली और उससे भी बच्चे हैं. पति ने परिवार अदालत में पत्नी को साथ रहने के लिए केस दायर किया. परिवार अदालत ने पक्ष में आदेश नहीं दिया तो हाईकोर्ट में अपील दाखिल की थी. जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया.

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