देवानंद सिंह
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा पहलगाम आतंकी हमले पर हाल ही में दिया गया बयान वैश्विक राजनीति में चल रहे विरोधाभासों को उजागर करता है। दरअसल, परिषद ने अपराधियों को न्याय के कठघरे में लाने की मांग अवश्य की है, लेकिन उसकी भाषा इतनी कमजोर और अस्पष्ट रही कि इससे कोई ठोस परिणाम निकलने की संभावना बहुत कम दिखाई दे रही है। यदि, हम इसकी तुलना 2019 के पुलवामा आतंकी हमले के बाद आए संयुक्त राष्ट्र के बयान से करें, तो स्पष्ट रूप से अंतर दिखाई देता है। तब परिषद ने सभी देशों से भारत सरकार के साथ सक्रिय सहयोग करने का आह्वान किया था, जबकि इस बार की अपील ‘संबंधित अधिकारियों’ के साथ सहयोग करने तक सीमित रही। भारत सरकार शब्द के न होने से पाकिस्तान पर सीधा दबाव नहीं बन पाया, जो कि इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है।
चीन की भूमिका इस परिदृश्य में फिर से सवालों के घेरे में है। सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के नाते चीन को आतंकवाद के विरुद्ध एक स्पष्ट और सख्त रुख अपनाना चाहिए था। इसके विपरीत, उसने पाकिस्तान के बचाव में एक बार फिर पर्दे के पीछे से सक्रिय भूमिका निभाई। भारत के लिए यह कोई नई बात नहीं है। विगत दो दशकों में भारत ने अनेक अवसरों पर यह देखा है कि आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को चीन का निरंतर संरक्षण प्राप्त रहा है। मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने की प्रक्रिया में चीन ने बार-बार अड़चनें डालीं। ऐसे में, आज जब पहलगाम जैसे जघन्य हमले की बात आती है, तो चीन का यह दोहरा रवैया वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को कमजोर करता है।
चीन का आतंकवाद पर रुख अवसरवादी रहा है। जब पाकिस्तान में चीनी नागरिकों को निशाना बनाया जाता है, तब चीन इसे आतंकवाद कहता है और कठोर प्रतिक्रिया देता है, लेकिन जब भारत में निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाया जाता है, तब वह आतंकवाद शब्द के प्रयोग से भी बचने की कोशिश करता है। इससे यह संकेत मिलता है कि चीन आतंकवाद को एक रणनीतिक उपकरण के रूप में देखता है, जिसे वह अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार परिभाषित और उपयोग करता है।
इसके अलावा, चीन की अपनी आंतरिक स्थिति उसकी दोहरी नीति को और उजागर करती है। शिनजियांग प्रांत में वीगर मुस्लिमों के साथ हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन किसी से छुपे नहीं हैं। लाखों वीगर मुस्लिमों को ‘री-एजुकेशन कैंपों’ में बंद कर, धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है। चीन इसे आतंकवाद और अलगाववाद के विरुद्ध कार्रवाई करार देता है, लेकिन जब वही मापदंड अन्य देशों पर लागू करने की बात आती है, तो वह राजनीतिक समीकरणों के अनुसार अपना रुख बदल लेता है।
भारत और चीन के संबंध ऐतिहासिक रूप से जटिल रहे हैं। 1962 के युद्ध से लेकर डोकलाम गतिरोध और गलवान घाटी संघर्ष तक, दोनों देशों के बीच सीमा विवाद ने आपसी विश्वास को गहरा आघात पहुंचाया है, इसके बावजूद भारत ने चीन के साथ अपने संबंध सुधारने के प्रयास जारी रखे हैं। कैलाश मानसरोवर यात्रा जैसी धार्मिक और सांस्कृतिक पहलों को पुनः शुरू करने का निर्णय भी इसी दिशा में एक सकारात्मक कदम है, लेकिन जब एक ही समय पर चीन पाकिस्तान का बचाव करता है और भारत के खिलाफ आतंकवाद को परोक्ष समर्थन देता है, तो यह सभी प्रयास खोखले प्रतीत होते हैं।
इस पृष्ठभूमि में भारत को चाहिए कि वह चीन के साथ इस मुद्दे पर अत्यधिक स्पष्टता के साथ बातचीत करे। भारत को यह संदेश देना चाहिए कि आतंकवाद के मामले में कोई समझौता नहीं किया जा सकता। यदि, चीन भारत के साथ अपने संबंधों में सुधार चाहता है, तो उसे पाकिस्तान के प्रति अपनी अंध-समर्थक नीति पर पुनर्विचार करना होगा। भारत को वैश्विक मंचों पर भी चीन की इस दोहरी नीति को उजागर करना चाहिए ताकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर इसका दबाव बने।
साथ ही, भारत को सुरक्षा परिषद सहित सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के विरुद्ध अधिक सुसंगत और कठोर नीति की मांग करनी चाहिए। वैश्विक आतंकवाद आज किसी एक देश की समस्या नहीं है, यह समूची मानवता के लिए खतरा है। यदि, सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य देश अपने रणनीतिक हितों के चलते आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में दोहरा मापदंड अपनाते रहेंगे, तो इससे आतंकियों को ही बल मिलेगा। भारत को चाहिए कि वह अपने कूटनीतिक प्रयासों को और तेज करे तथा अन्य लोकतांत्रिक देशों के साथ मिलकर आतंकवाद के विरुद्ध एक वैश्विक संधि या स्पष्ट कार्यनीति पर जोर दे।
पाकिस्तान द्वारा पहलगाम हमले की ‘तटस्थ जांच’ का प्रस्ताव उसकी रणनीतिक हताशा को दर्शाता है। यह प्रस्ताव एक ऐसी सरकार की छटपटाहट को उजागर करता है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ती जा रही है। भारत को इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज करते हुए यह स्पष्ट करना चाहिए कि आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देश की किसी भी जांच प्रक्रिया पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसके बजाय भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वैश्विक समुदाय पाकिस्तान से स्पष्ट और पारदर्शी कार्रवाई की मांग करे।
आज का वैश्विक परिदृश्य भारत के लिए एक अवसर प्रस्तुत करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्वीकार्यता और प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। चाहे वह क्वाड जैसी सामरिक पहल हो, जी20 की अध्यक्षता हो या संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की मांग हो – भारत एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहा है। ऐसे में, भारत को आतंकवाद के मुद्दे को वैश्विक प्राथमिकता बनाने का प्रयास करना चाहिए। भारत के पास अब एक सशक्त अवसर है कि वह चीन जैसे देशों के पाखंड को उजागर करे। भारत को यह स्पष्ट करना चाहिए कि यदि चीन भारत के साथ संबंध सुधारना चाहता है, तो उसे आतंकवाद के मुद्दे पर अपनी अवसरवादी और रणनीतिक दृष्टि को छोड़ना होगा। एक विश्वसनीय और जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में, चीन से यह अपेक्षा की जाती है कि वह आतंकवाद के विरुद्ध बिना किसी भेदभाव के कार्रवाई करे।
आखिर में, भारत को अपने भीतर भी आतंकवाद से निपटने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने चाहिए। आंतरिक सुरक्षा को सुदृढ़ करना, खुफिया तंत्र को सशक्त बनाना और सीमा प्रबंधन को अत्याधुनिक बनाना आज की अनिवार्यता है। साथ ही, वैश्विक कूटनीति के माध्यम से भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आतंकवाद को समर्थन देने वाले देशों को राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक रूप से अलग-थलग किया जाए।
पहलगाम हमला हमें यह स्मरण कराता है कि आतंकवाद आज भी एक ज्वलंत चुनौती है। इस चुनौती से निपटने के लिए केवल बयानबाजी नहीं, बल्कि ठोस और निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता है। भारत को चाहिए कि वह अपने कूटनीतिक, सैन्य और आंतरिक सुरक्षा तंत्र को पूरी तरह से सक्रिय रखे और वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध एक सशक्त आवाज बनकर उभरे, तभी पहलगाम जैसे अमानवीय कृत्यों के अपराधियों को सच्चा न्याय मिल सकेगा और दुनिया एक सुरक्षित स्थान बन सकेगी।