देवानंद सिंह
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा आईफोन निर्माता कंपनी एपल को दी गई टैरिफ़ चेतावनी न केवल वैश्विक व्यापार की राजनीति को उजागर करती है, बल्कि भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए भी एक चेतावनी और अवसर दोनों की तरह है। ट्रंप का कहना है कि अगर, एपल भारत या किसी अन्य देश में आईफोन बनाती है, तो वह अमेरिका में इन उत्पादों को बिना टैरिफ़ के नहीं बेच पाएगी। उनका यह बयान ऐसे समय आया है, जब एपल चीन से अपने मैन्युफैक्चरिंग बेस को भारत स्थानांतरित करने की प्रक्रिया में है और भारत में 25% तक आईफोन निर्माण का लक्ष्य लेकर चल रही है। सवाल उठता है कि ट्रंप का यह रुख महज़ घरेलू राजनीति से प्रेरित है या इसके पीछे व्यापक रणनीतिक उद्देश्य हैं? और सबसे अहम यह है कि भारत के लिए इसके क्या मायने हैं?
डोनाल्ड ट्रंप का यह बयान कोई पहली बार नहीं है। अपने पहले कार्यकाल के दौरान भी वे बार-बार ‘मेक इन अमेरिका’ की नीति को बढ़ावा देते रहे। 2018-19 के दौरान उन्होंने चीन पर भारी टैरिफ़ लगाए थे, जिससे अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वॉर भड़क गया था। ट्रंप का मौजूदा बयान उसी नीति की वापसी प्रतीत होता है, जिसमें वे अमेरिकी कंपनियों पर दबाव डालते हैं कि वे अपने मैन्युफैक्चरिंग ऑपरेशन्स अमेरिका में ही संचालित करें।
यह ट्रंप के घरेलू समर्थन आधार को मज़बूत करने की रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, खासकर मिडवेस्टर्न राज्यों में, नौकरी खोने के लिए ग्लोबल आउटसोर्सिंग को ज़िम्मेदार मानता रहा है। ऐसे में, एपल जैसी टेक कंपनी को निशाना बनाकर ट्रंप अपने ट्रेड पॉपुलिज़्म को पुनः जीवित करना चाहते हैं। वैश्विक व्यापार विश्लेषक अजय श्रीवास्तव के मुताबिक, अमेरिका में आईफोन बनाना व्यावसायिक रूप से घाटे का सौदा होगा। भारत और चीन में एक आईफोन की असेंबली की लागत लगभग $30 आती है, जबकि यही लागत अमेरिका में $390 तक जा सकती है। इसका प्रमुख कारण अमेरिका में श्रमिकों की मज़दूरी है, जो भारतीय मजदूरी से लगभग 13 गुना अधिक है। अमेरिका में न्यूनतम मज़दूरी के सख़्त क़ानून, श्रमिक संगठनों की ताक़त, और उच्च जीवन-यापन लागतें मैन्युफैक्चरिंग को अत्यधिक महंगा बना देती हैं।
इसके विपरीत भारत न केवल सस्ती श्रमशक्ति उपलब्ध कराता है, बल्कि सरकार द्वारा प्रदान की जा रही प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव स्कीम के तहत कंपनियों को सब्सिडी और टैक्स रियायतें भी मिलती हैं। उदाहरण स्वरूप, एपल की तीन प्रमुख मैन्युफैक्चरिंग पार्टनर्स – फॉक्सकॉन, टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स और पेगाट्रॉन को तीन वर्षों में ₹6600 करोड़ रुपये तक की सब्सिडी दी गई है। इतना ही नहीं, भारत सरकार की नीतिगत स्पष्टता, बुनियादी ढांचे में सुधार और लॉजिस्टिक्स सपोर्ट ने देश को एपल के लिए एक आकर्षक निवेश गंतव्य बना दिया है।
भारत के लिहाज़ से ट्रंप का बयान सतही तौर पर चिंताजनक ज़रूर है, लेकिन दीर्घकालिक तौर पर यह एक रणनीतिक अवसर भी बन सकता है। भारत अब महज़ एक आउटसोर्सिंग डेस्टिनेशन नहीं, बल्कि हाई-टेक मैन्युफैक्चरिंग हब के रूप में उभर रहा है। चेन्नई के पास स्थित श्रीपेरंबदूर में एपल का सबसे बड़ा उत्पादन केंद्र है, जहां लगभग 40,000 कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनमें से अधिकांश स्थानीय युवा महिलाएं हैं। अगस्त 2023 तक एपल के भारत आधारित ऑपरेशन्स में 1.64 लाख से अधिक लोग प्रत्यक्ष रूप से कार्य कर रहे थे।
अगर, अमेरिका अपने टैरिफ़ नियमों को और कड़ा करता है, तो भी एपल जैसी कंपनी के लिए भारत छोड़ना आसान नहीं होगा। चीन में लागत भले ही अब भी थोड़ी सस्ती हो, लेकिन वहां की जियोपॉलिटिकल अनिश्चितताएं, जैसे अमेरिका के साथ बढ़ता तनाव, ज़ी जिनपिंग की केंद्रीकृत नीति और उत्पादन बाधाएं कंपनियों को मजबूर कर रही हैं कि वे वैकल्पिक उत्पादन केंद्रों की तलाश करें।
विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रंप का यह बयान भारत पर एक प्रकार का नेगोशिएटिंग प्रेशर है। संभवतः ट्रंप भारत-अमेरिका व्यापार समझौते में और अधिक रियायतें चाहते हैं। जैसे कि मेडिकल डिवाइसेज़, कृषि उत्पादों पर टैरिफ़ में छूट, या अमेरिकी डिजिटल कंपनियों के लिए आसान डेटा एक्सेस इत्यादि। वे जानते हैं कि भारत इस समय एपल जैसी वैश्विक कंपनियों को लुभाने के लिए पूरी ताक़त लगा रहा है। ऐसे में, वे इस लेवरेज का उपयोग करके भारत से व्यापारिक फायदे लेना चाहेंगे।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह ट्रंप की भारत को ‘नरम करने’ के प्रयास की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। वो कहते हैं कि भारत और अमेरिका के बीच एक व्यापक ट्रेड डील की पृष्ठभूमि बन रही है, और ट्रंप का बयान संभवतः उसी कड़ी में दबाव की राजनीति है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, एपल अपने फैसले लाभ-हानि के गणित पर आधारित करती है। उनके अनुसार, एपल ने भारत में निवेश इसलिए नहीं किया, क्योंकि भारत कोई राजनीतिक मित्र देश है, बल्कि इसलिए किया, क्योंकि यहां उसे लागत, संसाधन और नीति समर्थन तीनों मिलते हैं। कंपनी पहले ही चेन्नई में 1.49 अरब डॉलर की नई यूनिट लगाने का ऐलान कर चुकी है। टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स द्वारा पेगाट्रॉन के अधिग्रहण के बाद घरेलू स्तर पर एपल का इकोसिस्टम और मज़बूत हो रहा है। इन सब संकेतों से स्पष्ट है कि एपल भारत में दीर्घकालिक दृष्टिकोण रखती है, और अमेरिका में संभावित टैरिफ़ बढ़ोतरी भी इसे पलायन के लिए प्रेरित नहीं करेगी।
कुल मिलाकर, डोनाल्ड ट्रंप के बयान को महज़ ‘चुनावी बयानबाज़ी’ कहकर टाल देना एक सरल उत्तर हो सकता है, लेकिन व्यापार नीति और वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग चेन के जटिल समीकरणों को देखते हुए यह ज़रूरी है कि भारत सतर्क रहे, हालांकि भारत को घबराने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी उसे अपनी नीतियों और लॉजिस्टिक्स को लगातार दुरुस्त बनाए रखना होगा ताकि वैश्विक कंपनियों का भरोसा बना रहे। ट्रंप की नीति चाहे टैरिफ़ राष्ट्रवाद हो या चुनावी चाल, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसका मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर प्रतिस्पर्धी बना रहे, और विदेशी निवेशकों के लिए आकर्षक बना रहे। साथ ही, अमेरिका के साथ व्यापारिक संवाद को भी संतुलित रूप से आगे बढ़ाना होगा ताकि ऐसे दबावों से बचा जा सके।