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    Home » जन सुराज के मतदाताओं में स्थायी या पहचान आधारित विश्वास नहीं बना पाने के निहितार्थ
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    जन सुराज के मतदाताओं में स्थायी या पहचान आधारित विश्वास नहीं बना पाने के निहितार्थ

    News DeskBy News DeskNovember 19, 2025No Comments7 Mins Read
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    जन सुराज के मतदाताओं में स्थायी या पहचान आधारित विश्वास नहीं बना पाने के निहितार्थ
    देवानंद सिंह
    2025 का बिहार विधानसभा चुनाव कई कारणों से ऐतिहासिक बन गया। यह चुनाव न केवल राज्य की पारंपरिक राजनीति और जातिगत समीकरणों की परीक्षा थी, बल्कि पहली बार मैदान में उतरी जन सुराज पार्टी और उसके प्रमुख प्रशांत किशोर के लिए यह एक निर्णायक अवसर भी था। स्वयं प्रशांत किशोर ने चुनाव से पहले यह भविष्यवाणी की थी कि उनकी पार्टी या तो अर्श पर होगी या फ़र्श पर। यह बयान जितना साहसिक था, नतीजे उतने ही कठोर सिद्ध हुए, पार्टी पूरी तरह फ़र्श पर दिखाई दी, लेकिन यह विफलता केवल एक चुनावी पराजय नहीं थी, यह बिहार के मतदाताओं की मनोवृत्ति, सामाजिक संरचना, राजनीतिक पहचान और नए विकल्पों के प्रति संदेह के जटिल मिश्रण की कहानी भी है। जन सुराज की यात्रा इस दृष्टि से अध्ययन का विषय बन जाती है कि किस प्रकार एक व्यापक जनसंपर्क अभियान, सुदृढ़ नेतृत्व छवि और युवा ऊर्जा होने के बावजूद मतदाताओं का भरोसा नहीं जीता जा सका।

     

     

    जन सुराज की पदयात्रा और व्यापक प्रचार ने यह भ्रम पैदा किया कि पार्टी राज्य में एक गहरी पैठ बना चुकी है। प्रशांत किशोर की लम्बी यात्रा, ग्राम स्तर तक पहुंच, और मीडिया में उनकी लगातार मौजूदगी ने यह एहसास दिलाया कि पार्टी चुनाव में एक मजबूत चुनौती पेश करेगी। सर्वेक्षणों के अनुसार, दस में से चार मतदाताओं को सीधे पार्टी की ओर से फ़ोन संदेश, व्हाट्सऐप सम्पर्क या सामाजिक माध्यमों पर प्रचार सामग्री मिली। यह आँकड़ा भाजपा के बराबर था, जो अपने संगठित चुनाव प्रचार के लिए जानी जाती है। साथ ही, 43 प्रतिशत मतदाताओं ने बताया कि पार्टी का डोर-टू-डोर सम्पर्क उन तक पहुंचा। इससे जन सुराज की सक्रियता और पहुंच का दायरा स्पष्ट होता है।

    फिर भी यह सक्रियता वोटों में बदल नहीं सकी। इसका एक बड़ा कारण यह था कि प्रचार और सम्पर्क का विस्तार तो हुआ, लेकिन मतदाता मन में पार्टी को लेकर स्थायी या पहचान आधारित विश्वास नहीं बन पाया। बिहार की राजनीति में अक्सर यह विश्वास जाति, सामाजिक पहचान, दशकों पुराने समर्थन, और पार्टी के पिछले प्रदर्शन से निर्मित होता है। जन सुराज इस संरचना में प्रवेश तो कर सकी, लेकिन अपनी जगह नहीं बना पाई।

     

     

    पार्टी ने पहले सौ दिनों के कार्यक्रम को केंद्र में रखकर विकास आधारित राजनीति का संदेश देने का प्रयास किया। यह बिहार में प्रचलित जाति-आधारित राजनीति से अलग दिशा थी और कई युवा इसे एक सकारात्मक पहल के रूप में देख रहे थे। फिर भी, सर्वेक्षण के मुताबिक केवल 18 प्रतिशत मतदाता ऐसे थे, जिन्होंने पार्टी के वादों को अपने वोट पर बहुत प्रभावी माना। 23 प्रतिशत ने कहा कि इन वादों का कुछ हद तक प्रभाव पड़ा। यानी बहुमत ने या तो इन वादों को महत्वहीन समझा या उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं थी।

    विशेषज्ञों के अनुसार, इसका कारण यह था कि प्रशांत किशोर की छवि एक रणनीतिकार की रही है, न कि पारंपरिक नेता की। मतदाताओं को यह समझने में कठिनाई हुई कि क्या वह सचमुच शासन चला सकेंगे या केवल योजनाएं और अभियान चलाने वाली भूमिका में ही सफल हैं। एक वर्ग में यह धारणा भी बनी कि जन सुराज अभी एक प्रयोग है, स्थाई विकल्प नहीं।

    बिहार की राजनीति में सामाजिक पहचान, जातिगत संरचना और वोट बैंक की ऐतिहासिक जड़ें बहुत गहरी हैं। यही वह आधार है, जिसने यहां की सरकारों को आकार दिया है। जन सुराज ने विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सुशासन को केंद्र में रखकर राजनीति को नई दिशा देने का प्रयास किया, लेकिन यह प्रयास राज्य की मौजूदा सामाजिक संरचना से टकरा गया। पार्टी न तो किसी व्यापक जाति समूह को सम्भव कर पाई, न कोई ऐसा गठजोड़ बना सकी जो सामाजिक प्रतिनिधित्व का भरोसा दे सके।

    विशेषज्ञों के अनुसार, बिहार में नई पार्टी तब ही उभर सकती है जब वह या तो किसी बड़े सामाजिक समूह का भरोसा जीते या किसी गहरी जनलहर का हिस्सा बने। जन सुराज इन दोनों में से किसी भी परिस्थिति को अपने पक्ष में नहीं मोड़ सकी। सर्वेक्षणों ने दिखाया कि जब मतदाताओं से पूछा गया कि क्या जन सुराज एक नया विश्वसनीय विकल्प है या बस एक और राजनीतिक संगठन, तो उनकी राय साफ़-साफ़ बंट गई। 47 प्रतिशत ने पार्टी को वास्तविक विकल्प माना, 30 प्रतिशत ने इसे पूरी तरह ख़ारिज किया, 23 प्रतिशत की कोई निश्चित राय नहीं थी।

     

     

    यह आकड़ा बताता है कि पार्टी ने उत्सुकता तो जगाई, लेकिन भरोसा मजबूत नहीं कर सकी। इस भरोसे की कमी वृद्ध मतदाताओं में अधिक स्पष्ट दिखी। वहीं, युवा मतदाताओं में उम्मीद अधिक थी, 18 से 25 वर्ष आयु वर्ग में 55 प्रतिशत ने जन सुराज पर विश्वास जताया। यह अंतर बताता है कि नई राजनीति की चाहत अधिकतर युवाओं में है, लेकिन बिहार के चुनावी नतीजे बुज़ुर्ग और मध्यवय मतदाताओं की प्राथमिकताओं से तय होते हैं। इसलिए युवाओं का आंशिक समर्थन भी निर्णायक नहीं बन सका।

    जन सुराज को लेकर 44 प्रतिशत मतदाता मानते थे कि प्रशांत किशोर बिहार में सार्थक बदलाव ला सकते हैं। लेकिन 36 प्रतिशत मतदाता यह भी महसूस करते थे कि उनके पास राजनीतिक अनुभव की कमी है। यह विरोधाभास पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आया। एक ओर युवा उन्हें बदलाव की आशा के रूप में देखते रहे, दूसरी ओर बुज़ुर्ग मतदाताओं को यह संदेह रहा कि क्या वे गठबंधन, प्रशासनिक मजबूरियों और राजनीतिक संघर्षों से भरे बिहार की जटिल सत्ता संरचना को सम्भाल पाएंगे।

    राजनीति में केवल विचारधारा नहीं, बल्कि संघर्ष, रिश्ते, संगठन और वर्षों का जमीनी अनुभव भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। जन सुराज इन पहलुओं में कमजोर दिखाई दी। 243 में से 238 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का निर्णय निश्चित रूप से महत्वाकांक्षी था, लेकिन यह महत्वाकांक्षा उलटी पड़ गई। इतनी बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारने से मतदाताओं को अपने उम्मीदवार को जानने का पर्याप्त समय नहीं मिला, उम्मीदवार स्थानीय स्तर पर अपनी पहचान मजबूत नहीं कर सके, पार्टी का संगठन इस विशाल संख्या को संभालने की स्थिति में नहीं था।

     

     

    विशेषज्ञों के अनुसार, बिहार जैसे राज्य में व्यक्तिगत जुड़ाव और वर्षों पुराना सम्पर्क चुनावी सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। जन सुराज ने अपने उम्मीदवारों को यह समय नहीं दिया। जब मतदाताओं से पूछा गया कि क्या बिहार को नए राजनीतिक विकल्प की आवश्यकता है या मौजूदा गठबंधन पर्याप्त हैं, तो तस्वीर बिल्कुल बराबर बंटी हुई मिली। 42 प्रतिशत नए विकल्प के पक्ष में थे,
    42 प्रतिशत मौजूदा गठबंधनों के साथ जाने को तैयार थे।
    यानी मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग बदलाव चाहता तो था, लेकिन उसके लिए जन सुराज को तैयार विकल्प के रूप में नहीं देख रहा था।

    यहां तक कि जो मतदाता बदलाव के इच्छुक थे, उनमें भी जन सुराज को केवल छह प्रतिशत वोट मिले। जबकि परंपरागत गठबंधनों को उनमें से अधिकांश ने चुना। इस स्थिति ने स्पष्ट कर दिया कि चाहत और विश्वास के बीच बड़ी खाई है, जिसे पार्टी पार नहीं कर पाई। जन सुराज को युवाओं में अपेक्षाकृत अधिक स्वीकार्यता मिली। युवाओं में पार्टी का वोट प्रतिशत बुज़ुर्ग वर्ग की तुलना में अधिक रहा। नेतृत्व को लेकर सकारात्मक भावना भी युवा वर्ग में अधिक थी, लेकिन बिहार जैसे राज्य में युवा मतदाता निर्णायक भूमिका में नहीं आते जब तक कि वे भारी संख्या में मतदान न करें या अपनी पसंद में एकजुट न हों। इस चुनाव में दोनों स्थितियां नहीं बनीं। परिणामस्वरूप युवा समर्थन निर्णायक सिद्ध नहीं हुआ।

     

     

    जन सुराज पार्टी का यह पहला चुनावी अभियान बिहार की राजनीति में एक रोचक अध्याय जोड़ता है। पार्टी ने
    उत्सुकता पैदा की, युवा पीढ़ी को आकर्षित किया,
    व्यापक प्रचार किया, राज्य के हर कोने में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। फिर भी यह मतदाताओं को यह विश्वास नहीं दिला सकी कि वह बिहार के शासन को सम्भालने के लिए तैयार और सक्षम है। बिहार की राजनीति में जहां पुराने गठजोड़, जातिगत समीकरण, कैडर आधारित संरचना और भावनात्मक वफादारियों आज भी निर्णायक भूमिका निभाती हैं, वहां एक नई पार्टी के लिए जगह बनाना कठिन है। जन सुराज ने यह कठिनाई प्रत्यक्ष रूप से अनुभव की। अंततः प्रशांत किशोर की पार्टी का डेब्यू यह बताता है कि प्रचार की व्यापकता, नेतृत्व की चर्चित छवि और युवा ऊर्जा केवल शुरुआत भर हैं। सफलता के लिए आवश्यक है जमीनी आधार, सामाजिक प्रतिनिधित्व, संगठन की मजबूती और सबसे बढ़कर विश्वास। जन सुराज को अभी इन सभी पहलुओं पर लंबी यात्रा तय करनी होगी।

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