निरंहकार होना कितना कठिन लगता है,लेकिन जो साहित्य और कला के मर्मज्ञ और साधक होते हैं वे सहज ही अहंकार से मुक्त होते हैं,क्योंकि साहित्य हो या अभिनय कला दोनों ही मनुष्य की चेतना को उर्ध्वगमन की ओर प्रेरित करते हैं और साहित्य स्वयं को खंगालने की एक सृजनात्मक प्रक्रिया है। इसी सृजनात्मक प्रक्रिया में रची-बसी अनीता सिंह जी की साहित्य-तथा रंगमंच साधना काव्य और रंगमंच से जुड़ी हुई है।
अनीता सिंह का व्यक्तित्व तीन रूपों में हमारे सम्मुख प्रस्तुत होता है–
प्रथम– काव्य-पथ के यात्री के रूप में
दूसरा– रंगमंच के यात्री के रूप में
तीसरा– गायिका के रूप में
काव्य-पथ के यात्री के रूप में
मेरा अनीता सिंह से बहुत पुराना परिचय नहीं है। लगभग एक साल से फेसबुक पर इनकी रचनाओं को पढ़ता रहा हूँ । इनकी रचनाएँ मुझे बहुत पसंद आती रही हैं , लेकिन इनसे कभी बातचीत नहीं हुई थी। इधर कुछ महीनों से उनसे फोन पर बातें होती रहीं और आदरणीया पूज्या दीदी मंजु ठाकुर के घर पर ‘ अखिल भारतीय साहित्य परिषद् ‘ की लिट्टी पार्टी में इनसे भेंट हुई थी। थोड़ी देर बात भी हुई थी। अन्य साहित्यिक कार्यक्रमों में उनसे मुलाकात होती रही। तबतक मैं इन्हें मात्र कविताएँ लिखने और मंचों पर पढ़ने तक ही जानता था। उसी दौरान परसुडीह में कुछ महीना पहले कविता पत्रिका के सम्पादक और लेखक अनुज मुकेश रंजन द्वारा आयोजित ‘ कविता पत्रिका काव्य-सम्मेलन वर्ष 2021 ‘ में अनीता जी से मुलाकात हुई। जब उन्होंने अपनी एक उच्चस्तरीय कविता का पाठ किया तब जितने भी कविगण उपस्थित थे सभी इनकी आवाज और पढ़ने के तरीके से बहुत प्रभावित हुए। कविश्रेष्ठ लखन विक्रांत ने तो अनीता जी की कविता की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। अपनी जिस कविता को अनीता जी ने सुनाया था उस कविता का गहरा भावबोध एक गहरी चुप्पी में हमारे और आपके काव्यात्मक चेतना को स्पर्श करता है जब कवयित्री कहती है–
” मैंने देखा है ख्वाबों को आसमान में उड़ते हुए
चांद को आंगन में मुस्कुराते हुए
और शोखियों के जलवों पर खुद को इतराते हुए
अब खामोश अफ़साने हैं
कायनात का नूर समेटे मासूम आंखों में
जिंदगी के पल को समेटे
बेपनाह चाहत को अपने आंचल में लिए
तुम्हारी खुशबू को कैद कर
यादों के उस पल को
चांदनी में संजोकर रखा है वह शब के मोहब्बत का रंग पलकों पर सजा रखा है। ”
इस कविता की एक-एक पँक्ति और इन पँक्तियों में पिरोये गये शब्द कवयित्री के भावलोक और भावबोध दोनों को इतनी गहराई के साथ व्यक्त करते हैं कि मन खामोश हो जाता है। मन में उठती हुई तरंगे अकस्मात शान्त हो जाती हैं। कवयित्री की भावदशा शब्दों के जरिये उतरते बिम्बों में स्पष्टतः परिलक्षित होती है। उपर्युक्त उद्धृत कविता की प्रथम दो पँक्तियाँ भागते मन को नियंत्रित कर देती है जब यह बेचैन मन ख्वाबों को आसमान में उड़ते और चाँद को आंगन में मुस्कुराते देखता है। इनकी रचनाएँ विभिन्न राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई तथा इन्हें विभिन्न राजकीय संस्थाओं से इनके साहित्य पर पुरस्कारों से भी सम्मानित किया। #जापान की अन्तर्राष्ट्रीय ई पत्रिका में ‘ हिन्दी की गूँज ” में इनकी अनेक रचनाएँ छपी।
कवयित्री की सृजनात्मक चेतना किसी ऐसी परम्परा को नहीं मानती जिससे व्यक्तित्व कुंठित हो जाये। व्यक्ति और समाज की बहुत सारी वे मान्यताएँ जो हमारे विकास के लिए बाधक हैं उनका उन्मूलन अनिवार्य है । इन्हीं आधारभूत तथ्यों के आधार पर कवयित्री अपनी बात रखने में नहीं झिझकती और आज हर व्यक्ति को पहले इन प्रश्नों से गुजरना चाहिए ताकि समाज और राष्ट्र के विकास के प्रति वह स्वच्छ दृष्टि अपना सके । निम्नलिखित कविता में कवयित्री की बेचैनी उसके काव्यात्मक धरातल पर उभरकर सामने आती है। यहाँ एक सृजनात्मक विद्रोह का व्यापक स्वर सुनायी पड़ता है—
” हां मैंने गुस्ताखी की
खुदा के दरबार में ईश्वर को ढूंढने गई
सूरज चांद तारों से उसका मजहब पूछने गई
हां मैंने गुस्ताखी की
इंसानों की भीड़ में इंशा तलाशने गई
अपनों में भेद भूलकर भाव अपनाने गई
हां मैंने गुस्ताखी की
रंगों से उसका कौम
पेड़ों से उसका वतन
और पंछियों से उसका चमन पूछने गई
हां मैंने गुस्ताखी की
मंदिर में हाथ उठा कर दुआ मांगने गई
मस्जिद में हाथ जोड़कर दया मांगने गई
हां मैंने गुस्ताखी की । ”
कवयित्री की काव्यात्मक अभिव्यक्ति नितान्त वैयक्तिक धरातल पर वर्तमान समय की जटिलताओं में भी शान्त लहरों की अटखेलियों में मुखर होती है —
” ज़िन्दगी की भागमभाग में
बहुत सारे अरमान हैं…
कुछ बिखरते सपने हैं…
कुछ बनती ख्वाहिशें हैं…
समुद्र से भी गहरे
जज़बातों..में …कभी
ज्वारभाटा का शोर है….
कभी शांत लहरों की
अटखेलियाँ है…
कभी मेहताब …..
तो कभी आफ़ताब….”
मैंने पहले ही कहा था कि हमारा जीवन ना समझ में आनेवाली गतिविधियों से संचालित होता है। मनुष्य सिर्फ सुख-सुविधाओं के पीछे दौड़ता है लेकिन न चाहकर भी दुःखों की बदली से वह घिर ही जाता है और ऐसा लगता है कि उसकी तमाम ज़िन्दगी आँसुओं का कफ़न ढो रही है। कवयित्री कहती है–
” ज़िंदगी ना जाने
क्या साज़िश करती है
अक्सर मेरे साथ
सुकून ए चिराग़ जलाकर
बुझा जाती है
अक्सर मेरे साथ… झक्की
खुशियों की चांदनी पर
आंसुओं का कफ़न
पहना जाती है
अक्सर मेरे साथ…आता
ख्वाहिशों की धरती पर
कांटे बिछा जाती है
अक्सर मेरे साथ
जिंदगी ना जाने
क्या साजिश करती है
अक्सर मेरे साथ…… ”
मनुष्य का मन कभी जीवन-लहरों पर इस तरह खेता चला जाता है कि वह स्याह रात से मुक्त नहीं हो पाता जहाँ स्याह रात उसे भयाक्रान्त कर देती है वहीं खुशियों की बारिश उसे खुशियों से भर देती है , कवयित्री की कविता ‘ स्याह रात ‘ में शब्द ऐसे बोलते हैं जिससे एक-एक अहसास ठोस रूप में हमारे सामने होता है—
” शब्द बोलते हैं
कागज के सफेद पन्नों पर
स्याह रात बनकर
कभी दर्द का टपकता बूंद
कभी खुशियों की बारिश
कभी दिल के
कोमल एहसास की
एक कहानी बनकर
शब्द बोलते हैं ”
कविता का शिल्प-पक्ष भी कम आकर्षक नहीं है। शब्दों का प्रयोग भाव के अनुकूल है और कवयित्री की आन्तरिक संवेदना इन्हीं शब्दों में संवेदित हो उठती है। हालाँकि मेरे इस आकलन से बहुत सी ऐसी विशेषताएँ हो सकती हैं जो छूट गयीं हों। हर व्यक्ति हमारे सामने एक रहस्य के आवरण में है। हम उसे जानने की जितनी भी कोशिश करें हमसे उसके जीवन के बहुत-से हिस्से बिना जाने ही छूट जातेहैं , और जब किसी कवयित्री, कवि या अभिनेत्री की बात आती है तब तो रहस्य और सघन हो जाता है। ऐसा अनुभव करके मैंने एक बहुत ही छोटा प्रयास किया है।
✍रंगमंच के यात्री के रूप में ✍
अनीता सिंह का व्यक्तित्व एक तरफ काव्य-सृजन के साथ अभिव्यक्त होता है तो दूसरी तरफ रंगमंच के रूपहले पर्दों से वही व्यक्तित्व उभरता है और यह रंगमंचीय अनीता सिंह फिर मन्नू भण्डारी रचित ‘ महाभोज ‘ की ‘रुक्मा ‘ के चरित्र से सारे दर्शकों को अपने वश में कर लेती है। दर्शक एकाग्रचित होकर रूक्मा के चरित्र से इस तरह प्रभावित हो जाते हैं कि तालियों की गड़गड़ाहट से सारा परिवेश प्रकम्पित होने लगता है।
अनीता सिंह का रंगमंचीय व्यक्तित्व मुझे इतना विशाल और विविध रूपों से सजा हुआ लगा कि उसे कलमबद्ध करने में न जाने कितने ऊहापोह से मुझे गुजरना पड़ा। एक कवयित्री सह अभिनेत्री के कलात्मक कैनवास एक विस्तार लिए हुए है क्योंकि ज्योंही मैं जिस बिन्दु पर अपनी कलम की नोक रखता हूँ कि दूसरी बिन्दु झिलमिलाती हुई मेरे सामने खुलने लगती है। उस परिस्थित में मैं माता वागीश्वरी से प्रार्थना करता हूँ कि इसे तू ही ले चल और थोड़ी देर बाद मेरी कलम चलने लगती है,अस्तु।
अनीता जी की उपलब्धियों के जीवन्त चित्र इतने हैं कि इनकी प्रतिभा को किसी खास प्रवृत्ति के साथ जोड़ नहीं सकते। एक संघर्षशील कवयित्री सह अभिनेत्री अनीता सिंह कला की वह प्रतिछवि है जिससे कम से कम स्थानीय रंगमंच की दुनिया निखरती जाती है। अनीता सिंह ने करीब 60 से ऊपर नाटकों में सफल अभिनय किया है तथा 60 से ऊपर छोटे-बड़े नाटकों का निर्देशन भी किया। इन्होंने ‘कस्तूरी पहचानो वत्स ‘ नाटक का सफल निर्देशन किया था। टेलिफिल्मों में भी इनकी पहुँच बनी रही। टेलिफिल्मों में अपनी अभिनय-कला से चर्चित अभिनेत्री के रूप में स्वयं को इन्होंने स्थापित किया , सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी इन्होंने अच्छी खासी पहचान बनायी। करीब 2500 नुक्कड नाटकों का काफी सफलतापूर्वक निर्देशन कर के अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को इस कला-जगत में प्रतिष्ठित किया। 1997 में बिहार सरकार द्वारा जमशेदपुर नाट्य कला के क्षेत्र में निर्देशन के लिए चयनित किया गया। इलाहाबाद में आयोजित ‘ अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता ‘ में इन्हें पुरस्कृत किया गया। रंगकर्मी के रूप में इन्हें विभिन्न राजकीय संस्थाओं द्वारा पुस्कारों से विभूषित किया गया। ‘ संस्कार भारती ‘ की सांस्कृतिक संस्था ,झारखंड, के प्रान्तीय नाट्य सह प्रमुख भी हैं। इनका व्यक्तित्व कला और साहित्य की बुनियाद पर टिकी रही।
✍गायिका के रूप में ✍
नृत्य-संगीत इनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा कहा जा सकता। इनके भीतर का कलात्मक व्यक्तित्व सिर्फ कविताओं या साहित्य की अन्य विधाओं तक ही सीमित नहीं रहा अपितु संगीत और नृत्य-कला की दीवारों पर भी मनमोहक जीवन्त चित्रों को अंकित करता रहा। टेलिविजन पर नृत्य-संगीत पर आधारित गीति नाट्य का धारावाहिक भी इनकी प्रतिभा का साक्षी रहा है। इनकी गायन-कला भी सम्मोहित करने में सक्षम है। फेसबुक पर पोस्ट की गई इनकी गायन-कला मन को एक बारगी सम्मोहित कर देती है। यही कारण है कि कविश्रेष्ठ #लखन #विक्रांत इनकी गायन-कला का मुक्तकंठ सें प्रशंसा करने से नहीं थकते।
अनीता जी राँची विश्वविद्यालय से एल•एल •बी की हैं। सम्प्रति ‘ झारखंड में वाद्य यंत्रों की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि पर स्वतंत्र शोध-कार्य कर रही हैं।
‘ झारखंड सभ्यता और संस्कृति विषय पर भी स्वतंत्र शोध-कार्य में ये संलग्न हैं।
प्रतिभा दबी नहीं रह सकती। वह अभिव्यक्ति का मार्ग तलाश ही लेती है। उसकी अभिव्यक्ति किसी भी तरह की धारणाओं, वर्जनाओं और सीमाओं से बाँधी नहीं जा सकती। कलात्मक प्रतिभा कला के विभिन्न क्षेत्रों से अपना प्रसार करना जानती है । अनीता सिंह की प्रतिभा कभी कविता में तो कभी अभिनय और संगीत में प्रस्फुटित होती रही। इनकी संवेदनात्मक सृजन कई स्तरों से साहित्य और संस्कृति को आत्मसात किए हुए है।
अनीता सिंह को मैं जहाँ तक जान पाया हूँ, मैंने वहाँ तक अपनी कलम को दौड़ाने की कोशिश की है लेकिन बहुत कुछ कहने तथा समझने में उनके व्यक्तित्व के गुणधर्मों का छूट जाना आश्चर्य की बात नहीं और इसीलिए मैंने उन्हीं गुणधर्मों को कलमबद्ध किया है जो मेरी इस थोड़ी सी प्रतिभा के आयतन में बिना किसी जटिलता के चुपचाप समा पाये हैं। जब किसी संवेदनशील कवि या कलाकार की संवेदनात्मक व्यक्तित्व और उसके सृजनात्मक पक्ष को कोई अन्वेषक अपनी कलम से स्पर्श करता है तो उसके भीतर एक किस्म का भय उपजता है कि कहीं कुछ उसके मूल विषय से हटकर किसी तरह का अनर्गल प्रलाप तो नहीं। इतना जानकर आप सुधी पाठक मुझसे जो भूल हुई होगी उसे क्षमा कर देंगे।
????सादर ????
राजमंगल पाण्डेय 25/12/2021
© सर्वाधिकार सुरक्षित