एक तरही ग़ज़ल के कुछ अशआर आप सब की मोहब्बतों के हवाले
कटेगा ख़ाक किसी का सफ़र सलीके से
निभाए ही हैं कहां, रहगुजर सलीके से ।
कभी तो शहर -निकाला भी ख़त्म होएगा
कि तबतलक तो रहो दर -बदर सलीके से।
हमारे वास्ते वा होते कैसे दरवाज़े
गये कहां ही कभी हम भी घर सलीके से।
हमारे दिन भी हमारा लिहाज़ क्या करते
हमीं ने फूंके थे शामो -सहर सलीके से ।
हमारी सुब्ह पे शामें सवार हैं लेकिन
बयान है कि करे हैं गुज़र सलीके से।
कभी तो शौके -नज़र इख्तिताम तक पहुंचे
कभी तो यार मेरे ! बन संवर सलीके से।
#इख्तिताम_ पूर्णता ,समाप्ति, अंत
…शैलेंद्र पाण्डेय शैल …