मित्रो !पिछले दो चार दिनों की ज़हनी धमा चौकड़ी आखिरश एक ग़ज़ल की शक्ल ले कर ही ठहरी .. हाज़िर करता हूं ,आपकी शमाअतों के हुज़ूर में ..
वहां रोना लगा है रौशनी का
यहां टोटा पड़ा है आंख ही का
चलो! जैसी भी है अब,ज़िंदगी है
गिला क्योंकर करो अब ज़िंदगी का
तबीयत है ज़रा हट के हमारी
हमें चलता नहीं अहसां किसी का
निभाता ख़ूब है यारी वो ज़ालिम
मज़ा लेता है मेरी बेबसी का
कहां रोके से रुकती है मुहब्बत
नहीं रोके कोई रस्ता नदी का
चले आओ, हमारे पास चल के
कोई हासिल नहीं इस बरहमी का
नचाता है वही, सारे जहां को
ये सारा खेल है पागल उसी का
…. शैलेन्द्र पाण्डेय शैल