राज्यपालों की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट की सख़्ती के मायने
देवानंद सिंह
भारतीय लोकतंत्र की जटिल संरचना में केंद्र और राज्य के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए संविधान ने अनेक सुरक्षा तंत्र स्थापित किए हैं। इन्हीं में से एक है राज्यपाल की संस्था, जिसे संविधान ने एक ‘संवैधानिक प्रमुख’ के रूप में परिभाषित किया है, लेकिन हाल के वर्षों में यह संस्था कई बार राजनीतिक विवादों के केंद्र में रही है, विशेष रूप से उन राज्यों में जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं। इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है, जो न केवल संविधान की व्याख्या करता है, बल्कि विधायी प्रक्रिया की गरिमा और समयबद्धता को सुनिश्चित करने की दिशा में भी एक निर्णायक कदम है।
यह फ़ैसला न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की अध्यक्षता में आया, और इसकी पृष्ठभूमि तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल आरएन रवि के बीच उपजे टकराव में निहित है। वर्ष 2020 से 2023 के बीच तमिलनाडु विधानसभा ने कुल 12 विधेयक पारित किए, जिनमें विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति से जुड़े अधिकार राज्यपाल से लेकर राज्य सरकार को देने का प्रावधान था, लेकिन राज्यपाल ने इन विधेयकों पर महीनों तक कोई निर्णय नहीं लिया, जिससे ‘पॉकेट वीटो’ की स्थिति उत्पन्न हो गई।
‘पॉकेट वीटो’ वह स्थिति होती है, जब कोई संवैधानिक प्राधिकारी किसी विधेयक को अपनी मंज़ूरी या अस्वीकृति के बिना अनिश्चितकाल तक रोके रखता है। भारतीय संविधान में इस प्रकार की स्पष्ट व्यवस्था नहीं है, लेकिन व्यवहार में इसे राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा बिल को लंबित रखने के रूप में देखा गया है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को ऐसा करने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, और विधायी प्रक्रिया में इस प्रकार की देरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को तीन विकल्प देता है, जिनमें विधेयक को मंज़ूरी देना, मंज़ूरी रोकते हुए विधानसभा को सुझावों के साथ विधेयक लौटाना, और विधेयक को राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजना शामिल हैं। वहीं, अनुच्छेद 201 राष्ट्रपति की भूमिका को रेखांकित करता है, जहां राष्ट्रपति के पास भी मंज़ूरी देने या विधेयक को रोके रखने का विकल्प होता है।
हालांकि, अब तक इन अनुच्छेदों में समयसीमा का स्पष्ट उल्लेख नहीं था, जिससे राज्यपाल और राष्ट्रपति को मनमाने ढंग से विधेयकों को लंबित रखने की गुंजाइश मिलती रही। कोर्ट ने इस शून्यता को भरते हुए स्पष्ट समयसीमा निर्धारित की है, जिसके अंतर्गत राज्य मंत्रिमंडल की सलाह पर राज्यपाल को विधेयक पर एक माह के भीतर निर्णय लेना होगा। यदि, राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह के विपरीत विधेयक को राष्ट्रपति को भेजना चाहते हैं, तो यह प्रक्रिया तीन महीनों में पूरी होनी चाहिए। राष्ट्रपति को भी विधेयक पर निर्णय लेने के लिए अधिकतम तीन महीने का समय मिलेगा।
यदि ,राज्यपाल किसी विधेयक को विधानसभा को पुनर्विचार हेतु लौटाते हैं, और वह दोबारा पारित हो जाता है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर मंज़ूरी देनी होगी। ये समय सीमाएं न केवल विधायी प्रक्रिया को समयबद्ध बनाती हैं, बल्कि कार्यपालिका के निरंकुश रवैये पर भी अंकुश लगाती हैं।
इस पूरे विवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि राज्यपाल को संविधान ने एक तटस्थ संस्था के रूप में स्थापित किया है, जो राज्य की कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख होता है। लेकिन हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि कई राज्यपाल अपनी भूमिका का निर्वहन राजनीतिक दृष्टिकोण से कर रहे हैं। विशेष रूप से तमिलनाडु, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच लगातार टकराव की स्थिति बनी रही है।
तमिलनाडु के मामले में, कोर्ट ने राज्यपाल के रवैये को ‘ईमानदारी से परे’ करार देते हुए कहा कि उनके ऊपर ‘भरोसा करना कठिन’ है। यह टिप्पणी अपने आप में अभूतपूर्व है और यह स्पष्ट करती है कि सुप्रीम कोर्ट अब संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों से ‘नैतिक’ और ‘संवैधानिक’ दोनों स्तरों पर पारदर्शिता की अपेक्षा कर रहा है।
कोर्ट ने राष्ट्रपति की भूमिका को लेकर भी अहम टिप्पणियां की हैं। न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति को जब कोई विधेयक भेजा जाता है, तो उन्हें आदर्श रूप से उसमें निहित समस्याओं और बदलावों को स्पष्ट करना चाहिए। यदि, वह विधेयक दोबारा भी बिना संशोधन के उनके पास आता है, तब भी अगर वह मंज़ूरी रोकते हैं तो उनके कारण स्पष्ट और न्यायसंगत होने चाहिए। इसका एक बड़ा नतीजा यह होगा कि राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को रोकने की प्रक्रिया अब ‘जांच’ के दायरे में आ सकेगी। यद्यपि कोर्ट ने यह भी माना कि उन मामलों में जहां संविधान राष्ट्रपति की मंज़ूरी को अनिवार्य करता है, वहां न्यायिक हस्तक्षेप सीमित होगा, लेकिन अगर यह पाया गया कि मंज़ूरी मनमाने या दुर्भावनापूर्ण कारणों से रोकी गई है, तो अदालत हस्तक्षेप कर सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय का यह फ़ैसला भारतीय लोकतंत्र की रक्षा की दिशा में मील का पत्थर है। यह न केवल राज्यपालों की भूमिका को स्पष्ट करता है, बल्कि विधायी प्रक्रिया में राज्य सरकारों के अधिकारों की पुनर्स्थापना भी करता है। साथ ही, यह यह भी संकेत देता है कि न्यायपालिका अब संवैधानिक प्रक्रियाओं को टालमटोल का शिकार बनने नहीं देगी। कोर्ट ने यह मान्यता दी कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक की मंज़ूरी रोकने को अदालतों में चुनौती दी जा सकती है। यह मान्यता विधायी प्रक्रिया को पूरी तरह न्यायिक परीक्षण के दायरे में लाने का मार्ग प्रशस्त करती है। यह एक स्पष्ट संदेश है कि भारतीय संविधान में कोई भी संवैधानिक पद ऐसा नहीं है जो न्यायिक जांच से परे हो।
कुल मिलाकर, तमिलनाडु बनाम राज्यपाल प्रकरण और उस पर आया सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय संघीय व्यवस्था के लिए एक निर्णायक मोड़ है। यह निर्णय बताता है कि राज्यपाल केवल ‘सांविधिक हस्ताक्षरकर्ता’ नहीं हैं, बल्कि उनके ऊपर संविधानिक जिम्मेदारियां भी हैं, जिनका निष्पक्ष निर्वहन आवश्यक है।
साथ ही, यह निर्णय राज्य सरकारों के विधायी अधिकारों को पुनर्स्थापित करता है और कार्यपालिका के प्रत्येक अंग को संविधान के अनुरूप आचरण करने की सीख देता है। अब जब समय-सीमाओं और न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था कर दी गई है, तो आशा की जानी चाहिए कि विधेयकों की मंज़ूरी में टकराव और अनावश्यक देरी का अध्याय अतीत बन जाएगा। यह फ़ैसला सिर्फ़ एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और संवैधानिक अनुशासन का नया अध्याय है, इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय न्यायपालिका केवल संविधान की व्याख्या तक सीमित नहीं, बल्कि उसकी आत्मा की रक्षा में भी तत्पर है।