क्या डोनाल्ड ट्रंप का चीन के प्रति नरम रुख भारत के लिए बन सकता है परेशानी का सबब?
देवानंद सिंह
डोनाल्ड ट्रंप ने दूसरी बार सुपर पावर अमेरिका के राष्ट्रपति का पद भार ग्रहण कर लिया है। डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान चीन के खिलाफ कठोर नीतियां अपनाईं थी, जिनमें व्यापारिक टैरिफ और अन्य प्रतिबंध शामिल थे, उनका मानना था कि चीन अमेरिका के खिलाफ अनुचित व्यापार प्रथाओं में लिप्त है और उसे सुधारने की आवश्यकता है, लेकिन इस बार चीन के प्रति उनका नरमी भरा का रुख़ नजर आ रहा है, जो भारत के लिए चिंता की बात कही जा सकती है।
ट्रंप का चीन के प्रति नरमी के रुख का पहला कारण यह हो सकता है कि चीन और अमेरिका की आर्थिक निर्भरता अत्यधिक गहरी हो चुकी है। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अमेरिका के लिए यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक साझीदार बन सकता है। दूसरा, ट्रंप की राजनीतिक रणनीति यह हो सकती है कि उनके चुनावी अभियान में चीन को एक ‘प्रतिद्वंद्वी’ के रूप में पेश किया गया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने महसूस किया कि चीन के साथ व्यावहारिक रिश्तों की आवश्यकता है, खासकर जब दुनिया भर में वैश्विक मंदी का खतरा मंडरा रहा है। इस परिस्थिति में यह सवाल उठता है कि क्या भारत की स्थिति इससे प्रभावित होगी ? यह बात उल्लेखनीय है कि भारत और चीन के बीच सीमा विवाद और सामरिक तनाव लंबे समय से चल रहा है और भारत अमेरिका का रणनीतिक साझीदार भी है। ऐसे में, ट्रंप की चीन के प्रति नरम नीति भारत के लिए कुछ चिंताएं उत्पन्न कर सकती है। अगर, चीन और अमेरिका के रिश्ते सुधरते हैं, तो भारत को अपनी रक्षा और सुरक्षा नीतियों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है, खासकर चीन के साथ जारी तनाव के बीच।
अगर, ट्रंप चीन के साथ सहयोग बढ़ाते हैं, तो भारत की यह चिंता हो सकती है कि उसे अमेरिका से उतना समर्थन न मिले, जितना पहले मिलता रहा था। भारत के लिए यह चुनौतीपूर्ण होगा, क्योंकि वह अपनी सुरक्षा और आर्थिक हितों के लिए अमेरिका पर निर्भर है, खासकर रक्षा सहयोग और व्यापारिक संबंधों के मामले में। इसलिए, ट्रंप की चीन के प्रति नरम नीति से भारत को अपनी रणनीतियों में बदलाव करना पड़ सकता है। उसे अमेरिका के साथ रिश्तों को संतुलित रखने के लिए चीन के साथ अपने संबंधों को भी ध्यान में रखते हुए काम करना होगा।डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति कार्यकाल विशेष रूप से अमेरिका की विदेश नीति और वैश्विक व्यापार व्यवस्था में उनके आक्रामक रुख के लिए जाना जाता है। इस बार जब उन्होंने राष्ट्रपति पद की शपथ ले ली है और उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखने की नीति अपनाई है। इस नीति को “अमेरिका फ़र्स्ट” के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसका उद्देश्य अमेरिका की आर्थिक और सामरिक स्थिति को मजबूत करना है। हालांकि, ट्रंप की यह नीति वैश्विक स्तर पर कई देशों के साथ व्यापारिक और कूटनीतिक संबंधों को प्रभावित कर सकती है। उनके पिछले कार्यकाल में भी यही स्थिति देखने को मिली थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ट्रंप के बीच व्यक्तिगत मित्रता की चर्चा अक्सर होती रही है, लेकिन आर्थिक और व्यापारिक मोर्चे पर दोनों देशों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव आए हैं। भारत ने अमेरिकी बाजार में प्रवेश करने के लिए कई अवसरों का लाभ उठाया, लेकिन ट्रंप की “अमेरिका फ़र्स्ट” नीति ने भारतीय निर्यातकों के लिए गंभीर चुनौतियां उत्पन्न कीं। ट्रंप ने भारत को व्यापार में अनुकूल परिस्थितियों का पालन करने की चेतावनी दी थी और इस बार भी यही आशंका जताई जा रही है कि उनका यह कार्यकाल भी भारतीय व्यापारियों के लिए कठिन साबित हो सकता है। हालांकि, ट्रंप के इस कार्यकाल में भारत के साथ सुरक्षा और रक्षा सहयोग मजबूत होने की संभावना है। 2020 में, भारत और अमेरिका के बीच रक्षा समझौतों में बढ़ोतरी देखी गई और इससे दोनों देशों के बीच सामरिक रिश्ते भी मजबूत हुए। ट्रंप की पाकिस्तान के प्रति आलोचना और भारत के समर्थन में खड़ा होना, यह स्पष्ट करता है कि उनका रुख भारत के प्रति सकारात्मक रहा था और इस दिशा में उनका दूसरा कार्यकाल भी निरंतर भारत के पक्ष में रहने की उम्मीद है।
ऐसे में, यह सवाल महत्वपूर्ण है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिकी दबदबे का भविष्य क्या होगा ? ट्रंप ने हमेशा अपने विरोधियों पर दबाव डालने और अमेरिका के हितों की रक्षा करने की नीति अपनाई है। उनका विश्वास है कि वैश्विक संस्थाएं, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन, अमेरिकी हितों को प्राथमिकता नहीं देतीं और इसलिए अमेरिका को इन संस्थाओं से बाहर रहने का अधिकार है। इस दृष्टिकोण से, अमेरिका का वैश्विक नेतृत्व चुनौतीपूर्ण स्थिति में हो सकता है। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में यह संभावना है कि वे उन देशों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेंगे, जो अमेरिकी नीतियों के खिलाफ हैं, खासकर व्यापार और रक्षा के मामलों में।
कुल मिलाकर, यदि ट्रंप अपनी “अमेरिका फ़र्स्ट” नीति को जारी रखते हैं, तो इससे वैश्विक व्यापार व्यवस्था और कूटनीतिक संतुलन प्रभावित होगा। हालांकि, यह भी संभव है कि ट्रंप कुछ रणनीतिक बदलावों के साथ अपने हितों को अधिकतम करने की कोशिश करेंगे, विशेष रूप से जब यह अमेरिका के दीर्घकालिक लाभ के अनुकूल हो। ट्रंप की अंतरराष्ट्रीय नीति और वैश्विक संगठनों के प्रति समझ भी भ्रम में डालने वाली है। ब्रिक्स (BRICS) देशों में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं, लेकिन ट्रंप ने गलती से स्पेन को भी इसका सदस्य बता दिया था। हालांकि, यह एक छोटी सी गलती हो सकती है, लेकिन इसका राजनीतिक और कूटनीतिक संदर्भ महत्वपूर्ण है, क्योंकि ट्रंप का ब्रिक्स देशों के प्रति दृष्टिकोण नकारात्मक रहा है। उनका मानना है कि इन देशों द्वारा अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अन्य मुद्राओं को बढ़ावा देने का प्रयास अमेरिका की आर्थिक ताकत को कमजोर कर सकता है, हालांकि ये सारी चीजें आने वाले दिनों में स्पष्ट हो पाएंगी और उम्मीद यही कि जानी चाहिए कि अमेरिका भारत के साथ संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की दिशा में काम करे।