भारत का रणनीतिक संतुलन की दिशा में निर्णायक क़दम है रफ़ाल-एम सौदा
देवानंद सिंह
भारत और फ्रांस के बीच 64,000 करोड़ रुपये के अनुमानित मूल्य पर 26 रफ़ाल-एम (मरीन) लड़ाकू विमानों के ऐतिहासिक सौदे पर हस्ताक्षर भारतीय रक्षा तैयारियों और विदेश नीति की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है। यह सौदा केवल एक सैन्य खरीद नहीं है, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की सामरिक शक्ति, समुद्री प्रभुत्व और बहुध्रुवीय वैश्विक संतुलन में उसकी भूमिका को दर्शाता है। इस समझौते के तहत भारत फ्रांस की रक्षा क्षेत्र की प्रमुख कंपनी दसॉ एविएशन से 22 सिंगल-सीटर और 4 डबल-सीटर रफ़ाल-एम लड़ाकू विमान खरीदेगा। इन विमानों को विशेष रूप से भारतीय नौसेना के विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत पर तैनात किया जाएगा। डिलीवरी की प्रक्रिया 2030 तक पूरी होनी तय की गई है। इसके अतिरिक्त, भारत में विमानों के रखरखाव, मरम्मत, और कुछ हिस्सों के निर्माण की सुविधा विकसित करने पर भी सहमति बनी है, जिससे घरेलू उद्योग और रोजगार सृजन को बल मिलेगा।
इस सौदे का समय विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि यह भारत-पाकिस्तान के बीच गहराते तनाव और चीन की आक्रामक समुद्री नीति की पृष्ठभूमि में हुआ है। रक्षा विश्लेषक संजीव श्रीवास्तव के अनुसार, यह समझौता सिर्फ एक हथियार सौदा नहीं है, बल्कि यह भारत के शक्ति-प्रदर्शन का प्रतीक है। पाकिस्तान के पास इस समय कोई विमानवाहक पोत नहीं है, जबकि भारत के पास आईएनएस विक्रांत और आईएनएस विक्रमादित्य जैसे दो प्रमुख पोत हैं। ऐसे में, समुद्री युद्धक्षेत्र में भारत की स्थिति कहीं अधिक मजबूत है। चीन के संदर्भ में यह सौदा और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। वर्तमान में चीन के पास तीन विमानवाहक पोत हैं और दो और निर्माणाधीन हैं। उसकी ‘String of Pearls’ रणनीति और दक्षिण चीन सागर में बढ़ती सक्रियता भारत के लिए एक दीर्घकालिक सामरिक चुनौती है। ऐसे में रफ़ाल-एम जैसे अत्याधुनिक नौसैनिक लड़ाकू विमान भारत को इस क्षेत्र में संतुलन बनाए रखने में मदद करेंगे।
रफ़ाल-एम की सबसे बड़ी खासियत इसकी बहुस्तरीय युद्धक क्षमता है। यह विमान 360 डिग्री विजिबिलिटी और मल्टी-टारगेट ट्रैकिंग की क्षमता रखता है। पायलट के हेलमेट से जुड़ी टारगेटिंग तकनीक और कंप्यूटर-निर्देशित मिसाइल सिस्टम इसे आधुनिकतम श्रेणी में शामिल करते हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि रफ़ाल हवा से हवा में 150 किलोमीटर और हवा से ज़मीन पर 300 किलोमीटर तक सटीक मिसाइल हमले करने में सक्षम है। यह क्षमता न केवल दुश्मन की हवाई ताक़त को चुनौती देती है, बल्कि दुश्मन के गहरे ठिकानों को भी लक्ष्य बनाने में सक्षम बनाती है। इस लिहाज़ से यह पाकिस्तान के एफ-16 और चीन के जे-20 जैसे विमानों की तुलना में एक अधिक संतुलित और भरोसेमंद विकल्प माना जा रहा है।
भारतीय नौसेना के पास फिलहाल मिग-29के जैसे लड़ाकू विमान हैं, जो अब तकनीकी दृष्टि से पुरातन हो चुके हैं और कई बार तकनीकी खराबियों का शिकार हो चुके हैं। इनकी जगह रफ़ाल-एम का आना नौसेना की युद्धक क्षमता को एक नई दिशा देगा। रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार, आईएनएस विक्रांत और विक्रमादित्य जैसे विमानवाहक पोतों पर लगभग 60 से 70 लड़ाकू विमान तैनात किए जा सकते हैं, ऐसे में 26 रफ़ाल-एम पर्याप्त नहीं हैं, लेकिन यह एक मजबूत शुरुआत है।
इस सौदे को भारत के रणनीतिक दृष्टिकोण में एक परिवर्तनकारी कदम माना जा सकता है। भारत पारंपरिक रूप से ज़मीनी युद्ध रणनीति पर केंद्रित रहा है, लेकिन अब समुद्री सीमाओं और वायुसेना को अधिक प्राथमिकता देने की दिशा में यह एक निर्णायक परिवर्तन है। 1997-98 में रूस से सुखोई-30 की खरीद के बाद यह पहला बड़ा लड़ाकू विमान सौदा है। सुखोई की तुलना में रफ़ाल अधिक उन्नत, बहुउद्देशीय और तकनीकी रूप से श्रेष्ठ है। इस सौदे से भारत को रणनीतिक, तकनीकी और औद्योगिक स्तरों पर लाभ होगा। रणनीतिक लाभ यह है कि इससे भारत की सैन्य पहुंच हिंद महासागर क्षेत्र में मजबूत होगी। तकनीकी दृष्टि से यह भारत की नौसैनिक क्षमता में गुणात्मक वृद्धि करेगा। और औद्योगिक दृष्टिकोण से यह ‘मेक इन इंडिया’ को गति देगा, क्योंकि इसके कुछ हिस्सों के निर्माण और रखरखाव की सुविधा देश में ही विकसित होगी।
भारत-फ्रांस रक्षा साझेदारी कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह सौदा उस साझेदारी को एक नए स्तर पर ले जाता है। दोनों देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समर्थक हैं और चीन की वर्चस्ववादी नीति के प्रति सजग हैं। फ्रांस हिंद-प्रशांत रणनीति में भारत को एक प्रमुख साझेदार मानता है, जबकि भारत फ्रांस को यूरोपीय संघ में अपने लिए एक स्थायी रणनीतिक मित्र के रूप में देखता है। रक्षा मंत्री रहे मनोहर पर्रिकर ने अपने कार्यकाल में रफ़ाल को भारत की हवाई सुरक्षा का स्तंभ बताया था। उन्होंने इसकी अचूक निशाना साधने की क्षमता और 360 डिग्री सेंसर कवरेज की प्रशंसा करते हुए इसे भारतीय सेना की गति और तीव्रता को बढ़ाने वाला बताया था, हालांकि इस सौदे के कई लाभ हैं, लेकिन कुछ चुनौतियां भी हैं।
सबसे पहली चुनौती है डिलीवरी में देरी। विमानों की पहली खेप आने में लगभग तीन साल लगेंगे और उनमें भी भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधन में समय लगेगा। दूसरी चुनौती है लागत—64,000 करोड़ रुपये का यह सौदा भारत के रक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा है और इसके साथ ही अन्य क्षेत्रों की आवश्यकताओं का भी संतुलन बनाए रखना होगा। तीसरी चुनौती है विमानों की संख्या। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 26 विमान दो विमानवाहक पोतों के लिए अपर्याप्त माने जा सकते हैं। आने वाले वर्षों में भारत को और अधिक विमान खरीदने या स्वदेशी विकल्पों पर तेज़ी से काम करने की आवश्यकता होगी। ‘TEDBF’ (Twin Engine Deck Based Fighter) जैसे DRDO परियोजनाओं को गति देने की ज़रूरत है ताकि दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की जा सके।
कुल मिलाकर, रफ़ाल-एम सौदा भारत की समुद्री सुरक्षा, सामरिक कूटनीति और तकनीकी आत्मनिर्भरता की दृष्टि से एक दूरदर्शी निर्णय है। यह केवल पाकिस्तान को जवाब देने की बात नहीं है, बल्कि चीन जैसी बड़ी शक्ति से संतुलन बनाए रखने, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक दायरा बढ़ाने और भारत को एक जिम्मेदार समुद्री शक्ति के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक निर्णायक क़दम है। यह सौदा दर्शाता है कि भारत अब केवल रक्षा के लिए हथियार नहीं खरीद रहा, बल्कि रणनीतिक सोच और वैश्विक संतुलन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए स्वयं को तैयार कर रहा है। रफ़ाल-एम न केवल भारत की नौसेना को ताक़त देगा, बल्कि उसकी विश्व भूमिका को भी नए सिरे से परिभाषित करेगा।