संघ प्रमुख के धर्म से जुड़े बयान के राजनीतिक संदर्भ
देवानंद सिंह
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत
रविवार को अमरावती में एक कार्यक्रम के दौरान एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि दुनिया में धर्म के नाम पर जितने भी अन्याय,अत्याचार होते हैं, उनके पीछे धर्म की गलत समझ काम कर रही होती है। गत दिनों उन्होंने यह भी कहा कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होना अच्छी बात है, लेकिन जगह-जगह मंदिर के विवाद खड़े करना ठीक नहीं है। संघ प्रमुख के इन दोनों बयानों में देश में हो रही घटनाओं के प्रति गहरी चिंता तो है ही, बल्कि जाति और धर्म के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले राजनेताओं की लिए स्पष्ट संदेश भी है।
संघ प्रमुख का यह बयान विशेष रूप से तब और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब इस समय भारतीय राजनीति में धर्म और जाति आधारित मुद्दों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। निश्चित रूप से धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले दलों के लिए यह एक गहरा और स्पष्ट संदेश है, क्योंकि इस बयान से धर्म के वास्तविक उद्देश्य और उद्देश्य की गलत व्याख्या करने पर गंभीर सवाल उठते हैं। इसके अलावा, राम मंदिर निर्माण को लेकर उनकी टिप्पणी भी राजनीतिक संदर्भ में महत्वपूर्ण है, जहां राम मंदिर का मुद्दा हमेशा एक संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दा रहा है। बात यहीं खत्म नहीं होती है, बल्कि इस मुद्दे पर भी विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है।
संघ प्रमुख ने जिस ‘धर्म की गलत समझ’ की बात की, वह इस बात को लेकर है कि बहुत से लोग धर्म के नाम पर केवल अपनी सत्ता और प्रभाव बढ़ाने का प्रयास करते हैं, न कि समाज की भलाई के लिए। धर्म का असली उद्देश्य मानवता की सेवा, सत्य, अहिंसा और समानता के आदर्शों को बढ़ावा देना है, लेकिन जब धर्म का इस्तेमाल केवल राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है, तो इसका सामाजिक ताना-बाना बुरी तरह से प्रभावित होता है और समाज में विभाजन और घृणा फैलने लगती है।
राम मंदिर निर्माण को लेकर मोहन भागवत का बयान यह दर्शाता है कि संघ भी समाज में धार्मिक विवादों को सुलझाने के पक्ष में है, न कि उन्हें बढ़ावा देने के। राम मंदिर का मुद्दा वर्षों से भारतीय राजनीति में एक संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दा रहा है, जिसमें राजनीतिक दलों ने इसे अपने लाभ के लिए कई बार भुनाया है। संघ प्रमुख ने यह कहा कि राम मंदिर का निर्माण एक सकारात्मक कदम है, लेकिन जगह-जगह मंदिरों को लेकर विवाद खड़ा करना समाज के लिए सही नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि संघ धार्मिक मुद्दों को केवल प्रतीकात्मक तौर पर नहीं, बल्कि समाज के सामूहिक भले के रूप में देखता है।
हमारी राजनीति में अक्सर देखा गया है कि कई राजनीतिक दल जाति और धर्म के नाम पर अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश करते हैं। ये दल समाज के विभिन्न वर्गों को एक दूसरे से लड़ाने का काम करते हैं, ताकि वे अपनी चुनावी ताकत बनाए रख सकें। मोहन भागवत के बयान में यह संदेश साफ है कि धर्म और जाति के नाम पर राजनीति करने से समाज में असहमति और घृणा फैलती है। यह समाज को एकजुट करने के बजाय उसे खंडित करता है, जो अंततः देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए हानिकारक होता है। भारत में धर्म और जाति आधारित राजनीति ने हमेशा समाज में विभाजन को बढ़ावा दिया है। कई बार चुनावी रणनीतियों के तहत धार्मिक और जातिगत भावनाओं का इस्तेेमाल किया जाता है। यह एक संवेदनशील मुद्दा है, जो देश के सामाजिक ढांचे पर गंभीर असर डालता है। संघ प्रमुख का यह बयान इस बात का संकेत है कि धर्म और जाति का सही अर्थ समझना और उन्हें राजनीति से अलग रखना समाज की सशक्तीकरण की दिशा में जरूरी है। संघ का मुख्य उद्देश्य एक समरस समाज की स्थापना है, जिसमें धर्म, जाति या किसी अन्य आधार पर भेदभाव न हो। उनके दृष्टिकोण में धर्म का उद्देश्य केवल आत्मा की मुक्ति या पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज की सेवा करना और समानता की ओर बढ़ना है।
संघ प्रमुख का यह बयान राजनीतिक दलों के लिए एक चेतावनी की तरह भी है, जो समाज में जाति और धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश करते हैं। मोहन भागवत का यह बयान यह स्पष्ट करता है कि संघ किसी भी प्रकार के धार्मिक और जातिगत ध्रुवीकरण के खिलाफ है और यह चाहता है कि भारतीय समाज अपने धर्म का सही अर्थ समझे और उसे समाज में भलाई के लिए प्रयोग करे। मोहन भागवत का बयान विशेष रूप से उन राजनीतिक दलों के लिए एक गहरा संदेश है, जो धर्म और जाति के आधार पर अपनी राजनीति को जीवित रखने का प्रयास करते हैं। उनकी बातों से यह स्पष्ट होता है कि धर्म का उद्देश्य किसी विशेष जाति, वर्ग या समुदाय के पक्ष में खड़ा होना नहीं, बल्कि समग्र मानवता की सेवा करना है। ऐसे में, राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि वे धार्मिक और जातिगत मुद्दों को चुनावी फायदे के लिए नहीं, बल्कि समाज में समानता और एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए प्रयोग करें।
संघ प्रमुख ने बिल्कुल ठीक कहा कि धर्म बड़ा जटिल विषय है और इसे समझने में अक्सर गलती होने की आशंका रहती है। कब धर्म की उदार वृत्ति पर संप्रदाय विशेष की संकीर्ण दृष्टि काबिज हो जाती है और कब धार्मिक समावेशिता को सांप्रदायिक कट्टरता ढक लेती है, यह कई बार समझ में नहीं आता। भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में देखा जाए तो बांग्लादेश में हाल के सत्ता परिवर्तन ने कैसे समाज को कट्टरपंथी तत्वों के चंगुल में ला दिया, यह सबके लिए सबक हो सकता है।
यह बात उल्लेखनीय है कि भारतीय राजनीति में धर्म और जाति का मसला हमेशा एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। यदि, राजनीतिक दल केवल वोट बैंक की राजनीति करते हैं, तो यह न केवल समाज में असहमति और तनाव बढ़ाता है, बल्कि यह लोकतंत्र की असल भावना के खिलाफ भी है। मोहन भागवत का यह बयान एक स्पष्ट संकेत है कि समाज में सामूहिक हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए, न कि छोटे-छोटे राजनीतिक फायदे के लिए समाज को विभाजित करना चाहिए। निश्चित रूप से संघ प्रमुख का यह विचार समाज को एकजुट करने और धर्म के सही उद्देश्य को समझने की आवश्यकता पर बल देता है। अगर, राजनीतिक दल इस संदेश को समझें और अपने दृष्टिकोण को धर्म और जाति के संदर्भ में पुनः परिभाषित करें, तो यह देश की सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए एक सकारात्मक कदम होगा।