आतंक के विरुद्ध जल कूटनीति की चोट से टूटेगी पाकिस्तान की कमर
देवानंद सिंह
जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण चरमपंथी हमले के बाद भारत सरकार ने जिस तरह सख्त कदम उठाए हैं, वह पाकिस्तान की कमर तोड़ने वाले हैं, खासकर, 1960 की सिंधु जल संधि को स्थगित करना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (CCS) की बैठक में यह निर्णय लिया गया। साथ ही, पाकिस्तान के साथ किसी प्रकार की जल-संबंधी सूचना साझा करने या बैठक में भाग लेने से भी भारत ने इनकार कर दिया है। यह निर्णय एक ओर भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक स्थिरता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है, तो दूसरी ओर जल कूटनीति के एक नए युग की शुरुआत का संकेत भी देता है।
13 अप्रैल को पहलगाम में हुए हमले में 26 निर्दोष नागरिकों की जान गई और अनेक लोग घायल हुए। भारत ने इसे न केवल एक आतंकवादी हमला माना, बल्कि इसे पाकिस्तान समर्थित सीमा पार आतंकवाद की एक और कड़ी के रूप में चिन्हित किया। भारत लंबे समय से पाकिस्तान पर आतंकवादी गुटों को समर्थन देने का आरोप लगाता रहा है, लेकिन इस बार जवाब केवल कूटनीतिक या सैन्य बयानबाज़ी तक सीमित नहीं रहा। सिंधु जल संधि के निलंबन के रूप में भारत ने एक रणनीतिक और संवेदनशील क्षेत्र जल संसाधनों को हथियार के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया है, जो पाकिस्तान के लिए एक कड़ा संदेश है।
उल्लेखनीय है कि 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच विश्व बैंक की मध्यस्थता में कराची में जो सिंधु जल संधि हस्ताक्षरित हुई, उसे भारत की शांतिपूर्ण विदेश नीति का प्रतीक माना जाता रहा है। यह संधि इस मायने में अद्वितीय है कि यह दोनों देशों के बीच बार-बार हुए युद्धों और तनावों के बावजूद कायम रही। इसके तहत भारत को रावी, ब्यास और सतलुज (पूर्वी नदियां) का पूर्ण उपयोग प्राप्त है, जबकि झेलम, चिनाब और सिंधु (पश्चिमी नदियां) पाकिस्तान को सौंपी गई हैं। भारत को पश्चिमी नदियों पर सीमित उपयोग जैसे विद्युत उत्पादन, कृषि और घरेलू जरूरतों की अनुमति थी।
इस संधि के तहत एक स्थायी सिंधु आयोग की भी स्थापना हुई, जिसमें दोनों देशों के जल आयुक्त नियमित रूप से मिलते और विवादों का समाधान करते रहे। यह संधि तकनीकी, पर्यावरणीय और राजनयिक स्थिरता की मिसाल मानी जाती रही है। भारत द्वारा इस संधि को स्थगित किए जाने का निर्णय पाकिस्तान में तीखी प्रतिक्रिया का कारण बना है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ और विदेश मंत्री इशाक डार ने इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताया है। उनका कहना है कि कोई भी देश एकतरफा इस संधि से हट नहीं सकता, क्योंकि यह एक द्विपक्षीय अंतरराष्ट्रीय समझौता है, और इसके लिए निष्कर्ष तक पहुंचना केवल कानूनी प्रक्रिया द्वारा संभव है।
हालांकि भारत ने स्पष्ट किया है कि यह स्थगन अनिश्चित काल तक नहीं रहेगा, बल्कि तब तक लागू रहेगा, जब तक पाकिस्तान सीमा पार आतंकवाद को समर्थन देना बंद नहीं करता। यह तर्क अंतरराष्ट्रीय नैतिकता के उस मापदंड के अनुरूप है जो राज्य की सुरक्षा और जीवन के अधिकार को सर्वोपरि मानता है। भारत के इस कदम से यह स्पष्ट होता है कि अब जल केवल एक प्राकृतिक संसाधन नहीं, बल्कि रणनीतिक संसाधन बन चुका है। यह कूटनीतिक हथियार बनकर उभरा है, जो एक राष्ट्र की राजनीतिक इच्छाशक्ति और राष्ट्रीय हितों की रक्षा का साधन बन सकता है। इस संदर्भ में, भारत का यह निर्णय एक व्यापक जल कूटनीति का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसमें ‘जल को नियंत्रण में लेकर शांति के लिए दबाव’ की नीति अपनाई जा रही है।
भारत ने सिंधु जल संधि को स्थगित करने के साथ-साथ पाकिस्तान के साथ भूमि मार्ग से आवागमन पर भी सख्ती दिखाई है। अटारी एकीकृत चेक पोस्ट को बंद करने और पाकिस्तानी नागरिकों को 1 मई 2025 से पहले भारत छोड़ने के निर्देश के साथ भारत ने स्पष्ट संदेश दिया है कि द्विपक्षीय संबंधों में सामान्य स्थिति बहाल तभी होगी, जब आतंकवाद के विरुद्ध ठोस और विश्वसनीय कदम उठाए जाएंगे। इसके अलावा, सार्क वीज़ा छूट योजना (SVES) को भी पाकिस्तान के संदर्भ में निरस्त कर दिया गया है, जिससे दोनों देशों के बीच लोगों के आपसी संपर्क पर भी प्रभाव पड़ेगा।
नई दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग के सैन्य सलाहकारों को ‘पर्सोना नॉन ग्रेटा’ घोषित करना और भारत के सैन्य प्रतिनिधियों को इस्लामाबाद से वापस बुलाना इस बात की पुष्टि करता है कि द्विपक्षीय विश्वास अब न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। दोनों उच्चायोगों में कर्मचारियों की संख्या को 55 से घटाकर 30 करना केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं, बल्कि कूटनीतिक संकेत है कि भारत-पाक संबंध अब सामान्य नहीं रहे।
भारत द्वारा सिंधु जल संधि को स्थगित करना केवल एक तकनीकी या कागजी फैसला नहीं है, यह एक व्यापक राजनीतिक संदेश है कि अब भारत आतंकवाद को लेकर और अधिक संयम नहीं दिखाएगा। यह फैसला उस विदेश नीति की ओर इशारा करता है, जिसमें ‘शांतिपूर्ण पड़ोसी’ की छवि से निकलकर ‘दृढ़ निर्णय लेने वाला राष्ट्र’ बनने की आकांक्षा है।
भविष्य की दृष्टि से यह निर्णय पाकिस्तान पर दबाव तो डालेगा, लेकिन इसके साथ ही यह भारत के लिए भी एक परीक्षण होगा कि क्या वह लंबे समय तक इस स्थगन को टिकाऊ और व्यावहारिक रूप से संचालित कर पाएगा? और क्या यह निर्णय वास्तव में आतंकवाद पर अंकुश लगाने में कारगर सिद्ध होगा? सवाल कई हैं, लेकिन इतना स्पष्ट है कि भारत अब अपनी संप्रभुता और सुरक्षा को लेकर जलनीति सहित हर क्षेत्र में निर्णायक होता जा रहा है, और यही बदलाव उपमहाद्वीप के भविष्य की भू-राजनीति को नई दिशा देगा।