पश्चिम बंगाल में बीजेपी की ‘हिंदुत्व राजनीति’ को ममता की चुनौती
देवानंद सिंह
पश्चिम बंगाल की राजनीति इस समय उस मोड़ पर खड़ी है, जहां परंपरा, पहचान और राजनीति की रेखाएं आपस में गूंथती जा रही हैं। दीघा में भगवान जगन्नाथ के भव्य मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद यह सवाल अब ज़ोर पकड़ने लगा है कि क्या तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने सचमुच भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को उसके सबसे मज़बूत गढ़—हिंदुत्व—पर चुनौती देने का सिलसिला शुरू कर दिया है? अक्षय तृतीया के दिन आयोजित यह समारोह भले धार्मिक प्रतीकों से जुड़ा रहा हो, लेकिन इसकी राजनीतिक व्याख्याएं कहीं अधिक व्यापक और गूढ़ हैं। यह आयोजन न केवल एक सांस्कृतिक उपक्रम था, बल्कि उसमें ममता बनर्जी की रणनीतिक राजनीति भी झलक रही थी। एक ऐसी राजनीति, जो बीजेपी द्वारा लंबे समय से गढ़ी जा रही ‘हिंदू विरोधी’ टीएमसी की छवि को ध्वस्त करना चाहती है।
बीजेपी ने जहां इस मंदिर को पर्यटन परियोजना करार देकर इसकी धार्मिक वैधता पर सवाल उठाए, वहीं तृणमूल कांग्रेस ने इसे भगवान जगन्नाथ के प्रति बंगाल की ऐतिहासिक श्रद्धा से जोड़ा। दिलचस्प बात यह है कि इसी परियोजना की परिकल्पना के समय अब बीजेपी के नेता शुभेंदु अधिकारी, तब तृणमूल सरकार के मंत्री थे, और इस प्रस्तावना का हिस्सा भी थे। इसका ज़िक्र करना टीएमसी के लिए राजनीतिक रूप से दोहरा लाभकारी था। एक ओर मंदिर निर्माण में निरंतरता का संदेश, तो दूसरी ओर विरोधियों की कथित अवसरवादिता को उजागर करने का मौका। बीजेपी की असहजता सिर्फ मंदिर तक सीमित नहीं रही। विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने समानांतर महान सनातनी सम्मेलन का आयोजन किया, जिससे यह स्पष्ट संकेत गया कि धार्मिक एजेंडे पर बढ़त बनाए रखने की जद्दोजहद अब दोनों दलों के लिए अपरिहार्य हो चुकी है, हालांकि इस सम्मेलन में पार्टी के झंडे नदारद थे, फिर भी इसका स्वरूप सांस्कृतिक कम, राजनीतिक अधिक प्रतीत हुआ।
दूसरी ओर, ममता बनर्जी की धार्मिक गतिविधियों में सक्रियता ने भी समीक्षकों का ध्यान खींचा है। चाहे वह दुर्गा पूजा में राज्य प्रायोजित अनुदान की वृद्धि हो, सुंदरबन के गंगासागर मेले में प्रशासनिक ताक़त की पूरी झोंक हो या फिर खुद ममता बनर्जी द्वारा सार्वजनिक मंचों पर मंत्रोच्चारण, सभी ने यह संकेत दिया कि तृणमूल कांग्रेस अब अपने हिंदू मतदाता वर्ग को लेकर सतर्क हो चुकी है। बीजेपी का सबसे पुराना आरोप कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण अब पहले जितना असरकारक नहीं रहा। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि ममता सरकार ने हिंदू प्रतीकों और धार्मिक आयोजनों को अपनाने की रणनीति अपनाकर उस नैरेटिव को तोड़ने की कोशिश की है, लेकिन यह भी सच है कि यह रणनीति उस जन असंतोष के बीच सामने आई है, जो शिक्षक भर्ती घोटालों, डॉक्टर की हत्या और अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे संवेदनशील मुद्दों के कारण तृणमूल के खिलाफ पनप रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, आगामी 2026 विधानसभा चुनावों की लड़ाई अब भ्रष्टाचार या बेरोजगारी पर नहीं, बल्कि हिंदुओं की ‘सांस्कृतिक सुरक्षा’ पर केंद्रित होती दिख रही है। उनका यह भी मानना है कि चुनावी नतीजे महज चार से पांच प्रतिशत ‘फ्लोटिंग वोटर’ की दिशा तय करेंगे, वह वर्ग जो अब तक बीजेपी और टीएमसी दोनों से असंतुष्ट रहा है। बीजेपी के भीतर की असहमति की एक झलक तब दिखी, जब पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष जगन्नाथ मंदिर समारोह में शामिल हो गए। घोष का मंदिर जाना, जहां उनकी निजी आस्था का विषय बताया गया, वहीं प्रदेश नेतृत्व ने इसे ‘पार्टी लाइन के ख़िलाफ़’ बताया, जिससे यह भी स्पष्ट हो गया कि खुद बीजेपी इस चुनौती को लेकर एकमत नहीं है।
दरअसल, बंगाल में हिंदुत्व की राजनीति अब केवल ‘ध्रुवीकरण’ का साधन नहीं रही, बल्कि यह ‘पहचान की राजनीति’ बन चुकी है। ममता बनर्जी ने इसे समय रहते पहचाना और अब यह कोशिश कर रही हैं कि बीजेपी को उसके ही ‘धर्मक्षेत्र’ में मात दी जा सके, लेकिन सवाल यही है—क्या मतदाता इस बदले हुए प्रतीकवाद को स्वीकार करेंगे? क्या यह रणनीति तृणमूल की छवि को ‘धर्मनिरपेक्ष लेकिन हिंदू-संवेदनशील’ में तब्दील कर पाएगी? इसका उत्तर आने वाले चुनावों में ही मिलेगा। फिलहाल, इतना तय है कि ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस अब हिंदुत्व के विमर्श से दूरी बनाने के बजाय उसी मैदान में उतरकर मुकाबला करना चाहती हैं—और शायद यही बात बीजेपी को सबसे ज़्यादा असहज कर रही है।