राष्ट्रीय स्तर तक सुनी जाएगी कर्नाटक चुनाव परिणामों की अनुगूंज !
देवानंद सिंह
कर्नाटक विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां कई दिनों से तेज थी एक तरह से यह कहा जा सकता है कि कड़ी सुरक्षा के बीच तनावपूर्ण माहौल में चुनाव संपन्न हुए और आगामी 13 मई को चुनाव का परिणाम आ जाएगा किसके सिर सजेगा ताज इस पर विश्लेषक पंडितों के द्वारा अभी से मंथन जारी है अब एग्जिट पोल के नतीजे आ गए हैं किसी एग्जिट पोल में कांग्रेस को बढ़त दिख रही है तो एक दो जगह भाजपा की भी बढ़त है लेकिन ज्यादातर एग्जिट पोल में कांग्रेस को बढ़त मिलती दिख रही है अगर एग्जिट पोल के नतीजे परिणाम में बदलते हैं तो कांग्रेस के लिए संजीवनी बूटी का काम करेगी कांग्रेस 2024 के चुनाव में मजबूती के साथ बारगेनिंग करने की स्थिति में होगी सभी चैनलों ने अपने अपने नफा नुकसान के हिसाब से विश्लेषण किया है यह मंथन 13 मई की सुबह तक जारी रहेगी
यहां राज्य की 224 विधानसभा सीटों के लिए मतदान हुआ है यह चुनाव भले ही एक राज्य में हो रहा हो, लेकिन इसके परिणामों की अनुगूंज राष्ट्रीय स्तर तक सुनी जाएगी। इसीलिए यहां भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही अपनी ताकत झौंकी हुई थी। वैसे, कर्नाटक को दक्षिण में भाजपा का एकमात्र दुर्ग माना जाता है, एग्जिट पोल के नतीजे के अनुसार यहां उसे हार का सामना करना पड़ेगा तो निश्चित तौर पर उसके दक्षिण में विस्तार की संभावनाओं को करारा झटका लगेगा।
अगर, पूरे देश में संघर्ष करती नजर आ रही कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसके लिए एक तरह से यह चुनाव निर्णायक से कम नहीं है। वह इसीलिए, क्योंकि पार्टी की कमान संभालने वाले मल्लिकार्जुन खरगे कर्नाटक से ही आते हैं। लिहाजा, यहां कांग्रेस की प्रतिष्ठा तो दांव पर है ही, बल्कि स्वयं मल्लिकार्जुन खरगे की प्रतिष्ठा भी दांव पर है। कर्नाटक में यदि एग्जिट पोल परिणाम में बदलते हैं तो कांग्रेस को जीत मिली तो, यह इस साल दूसरे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के लिए बूस्टर डोज़ साबित हो सकती है।
दरअसल दक्षिणी भारत के राज्यों ने अक्सर उत्तरी भारत के राज्यों की तुलना में अलग तरीके से मतदान किया है। कर्नाटक के चुनाव महाराष्ट्र या तेलंगाना जैसे पड़ोसी राज्यों को प्रभावित नहीं करते, लेकिन इस बार की स्थिति क्या रहेगी, यह देखने वाली बात होगी।
इस चुनाव में बीजेपी हार जाती है, तो इससे कांग्रेस और विपक्ष को एक नया जीवन मिलेगा। इन दलों को इससे और ऊर्जा मिलेगी। यह बीजेपी के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं होगा। अन्य राज्यों के चुनाव परिणामों में भी इसका असर देखने को मिल सकता है और आगामी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भी इसका असर देखने को मिल सकता है, लेकिन कितना असर दिखेगा, यह कहना अभी मुश्किल होगा, लेकिन कांग्रेस के लिए यहां की हार इसलिए अधिक घातक होगी, क्योंकि वह जिस तरह से अपनी हार का मिथक तोड़ने के प्रयासों में जुटी हुई है, उस लिहाज से यहां जीतना उसके लिए बेहद जरूरी है। इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि
कांग्रेस के लिए तो यह चुनाव ‘करो या मरो’ वाला है। क्योंकि यहां का चुनावी प्रदर्शन ही 2024 के आम चुनाव में उसकी संभावनाओं की दिशा यह करेगा।
बेहतर प्रदर्शन करने पर ही वह विपक्षी एकता की धुरी बन सकती है। अन्यथा राजनीतिक मोलभाव की उसकी शक्ति घट जाएगी। अभी तक के रुझानों के हिसाब से कांग्रेस के लिए कर्नाटक की राह अपेक्षाकृत आसान लग रही है। इसमें राज्य में भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल की भी एक अहम भूमिका है। बासवराज बोम्मई के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही थी। वहीं, टिकट वितरण में भी असंतोष स्पष्ट रूप से देखने को मिला था। नाराज नेता लगातार पार्टी से पलायन कर रहे थे। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य में प्रभावी लिंगायत समुदाय से आने वाले जगदीश शेट्टार जैसे दिग्गज नेता भी शामिल हैं।
अगर, भाजपा के एंगल से देखें तो तमाम विरोधी माहौल के बाद भी उसे कितना नुकसान उठाना पड़ेगा, अभी उस संबंध में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा, क्योंकि उसने कई मौजूदा विधायकों का टिकट काटकर नए लोगों को मौका देकर सत्ताविरोधी रुझान को थामने का भरपूर प्रयास किया है। जिन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की हवा थी, उनसे पार्टी ने किनारा कर दिया है, लिहाजा इसका सकारात्मक असर भी देखने को मिल सकता है, क्योंकि उसकी यह रणनीति अन्य राज्यों में भी कारगर होती नजर आई थी, जहां तक लिंगायत समुदाय की बात है तो पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा अभी भी इस तबके के सबसे बड़े और व्यापक स्वीकार्यता वाले नेता माने जाते हैं। राज्य में करीब 16 से 18 प्रतिशत संख्या लिंगायतों की है और ये पिछले कुछ समय से भाजपा के पारंपरिक मतदाता माने जाते हैं, इस बार भी भाजपा को इसका भरपूर फायदा मिल सकता है।
कांग्रेस में सतही तौर पर तो सब ठीक लग रहा है, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और पार्टी की प्रदेश इकाई के मुखिया डीके शिवकुमार के बीच खटपट किसी से छिपी नहीं थी। पिछले चुनावों में किंगमेकर बनकर उभरे जद-एस में भी टिकट वितरण को लेकर आक्रोश दिखा था। देवेगौड़ा परिवार में ही खींचतान जारी मतदान के दिन तक जारी है। उन पर हद से ज्यादा परिवार केंद्रित होने के आरोप लग रहे हैं। इन हालातों में यही नजर आ रहा है कि तीनों ही दल किसी न किसी तरह की मुश्किलों से जूझ रहे हैं। इसीलिए यहां मुख्य प्रतियोगिता भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है। उम्मीद दोनों ही पार्टियां लगाईं बैठी हैं। भले ही, राज्य में भाजपा की सरकार रही हो, लेकिन कर्नाटक में भाजपा को कभी भी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। भाजपा ने 2008 में 110 और 2018 में 104 सीटें जीती थीं। 2019 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों के भाजपा में शामिल हो जाने के बाद जेडीएस-कांग्रेस का गठबंधन टूटा गया था।
लिहाजा, इस बार कर्नाटक में चुनाव परिणाम के मायने बहुत बड़े होंगे। भाजपा जीतने पर पूरे देश में यहीं ढिंढोरा पीटेगी कि उसके पास कर्नाटक की जीत दक्षिण भारत में चुनावी स्वीकार्यता का सबूत है। इससे वह यह भी साबित करने की कोशिश करेगी कि कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का कोई असर नहीं हुआ। इसका परिणाम यह होगा कि इससे समूचे विपक्ष का मनोबल गिरेगा, ठीक वैसे ही जैसे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीज़ों से विपक्ष का मनोबल टूटा था। यदि, इस चुनाव में भाजपा हारती है, तो इसका मतलब यह होगा कि वो दक्षिण भारत में कोई प्रगति नहीं कर पाई है और दक्षिणी पड़ोसी राज्यों तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर भी इस इसका असर पड़ेगा।