दलदल में दलित राजनीति
धीरेंद्र कुमार
बीते रविवार को बिहार की दलित राजनीति में एक विस्फोटक बदलाव देखने को मिला। स्व. रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी टूट गई। यह घटना उनके मौत के 08 महीने बाद घटित हुई है। जिस तरह से लोजपा ने 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू को टारगेट कर डैमेज दिया था, उसमें एक बात तय थी कि नीतीश कुमार पलटवार करेंगे। बिहार में लोजपा से नेताओं के जाने का सिलसिला फरवरी 2021 ही जारी था। लेकिन अभी तक की स्थिति थी कि नेता या कार्यकर्ता जा रहे थे पर पार्टी नेतृत्व को कोई चुनौती नहीं थी। रविवार को नीतीश कुमार के ऑपरेशन ने लोजपा में दो फाड़ करा दिया। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पार्टी में किनारे पड़ गए । लोजपा के 06 में से पांच सांसदों ने अपना नया नेता चुन लिया।
ऊपर आसमान नीचे पासवान
जीते जी रामविलास पासवान पूरे देश के लिए दलित राजनीति का सबसे चमकता चेहरा थे। जनता दल यूनाइटेड से अलग होकर उन्होंने साल 2000 में अपनी नई पार्टी का गठन किया था। बिहार में दलितों के बीच स्व. पासवान का कद कितना ऊंचा था इसका अंदाजा उनके लिए गढ़े गए नारों से लगाया जा सकता है। जब भी रामविलास पासवान मंच से अपनों को संबोधित किया, उनके समर्थकों ने नारा बुलंद की…नीचे धरती पर आसमान देश का नेता रामविलास पासवान। राजनीति में परिवार या कहें कि परिवार के साथ राजनीति कैसे की जा सकती है इसका अनुपम उदाहरण थे रामविलास पासवान। अपने तीनों भाइयों को देश और प्रदेश की राजनीति में एडजस्ट करते हुए रामविलास ने अपने पुत्र के हाथों अपनी 60 साल की संचित राजनीति को 2014 से ही सौंपना शुरू कर दिया था। राजनीतिक हवा को पहचानने वाले रामविलास अपनी सूझबूझ के बदौलत अपनी 20 साल पुरानी पार्टी को 12 साल सत्ताधारी पार्टी कहलाने का गौरव दिया।
दलित राजनीति की दिक्कतें
देश में अब तक जो भी दलित राजनेता हुए उनके साथ दो स्थितियां हमेशा कायम रही। पहला क्षेत्रवाद और दूसरा परिवारवाद। जगजीवन राम हों या रामविलास पासवान हों या फिर मायावती हों या रामदास अठावले या जीतन राम मांझी इनके पास दलित विमर्श के नाम पर चिंतन तो राष्ट्रीय है लेकिन, उनकी कार्यशैली कभी भी प्रदेश और परिवार से बाहर की नहीं रही। अपवाद के तौर पर जगजीवन राम राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा रहे । प्रदेश की राजनीति में उनका व्यापक हस्तक्षेप कभी नहीं रहा। फिर भी, जब राजनीतिक विरासत सौंपने की बात आई तो वे भी परिवार से बाहर किसी चेहरे को खोजने में नाकाम रहे। मीरा कुमार जो कि जगजीवन राम की बेटी हैं उनकी खुद की छवि कांग्रेस के अंदर राष्ट्रीय दलित नेता के रूप में नहीं बन सकी। बिहार प्रदेश कांग्रेस की ओर से कई बार श्रीमती कुमार को बिहार प्रदेश कांग्रेस का चेहरा बनाने की मांग उठती रही है। एक वक्त था जब देश रामविलास पासवान के में राष्ट्रीय दलित चेहरा को देख रहा था। लगभग पूरे देश में पासवान जी ने अपने समर्थकों की फौज खड़ी की थी। संसदीय चुनाव में दो बार रिकॉर्ड मत से चुनाव जीतने वाले पासवान खुद की राजनीतिक जमीन बिहार से बाहर नहीं बना सके।
परिवार ही बना भस्मासुर
जिस परिवार को लेकर रामविलास अपनी राजनीति साधने में हमेशा कामयाब रहे वही परिवार उनके मरने के बाद उनकी पार्टी के लिए भस्मासुर बन गया। रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्व. रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान के खिलाफ विद्रोह करते हुए पार्टी का दो फाड़ कर दिया। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा में सभी महत्वपूर्ण पदों पर परिवार के ही सदस्य बैठे हुए थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष उनके पुत्र चिराग पासवान थे तो बिहार का कमान भतीजे प्रिंस पासवान के हाथों था।
पार्टी के टूटने के बाद चिराग पासवान ने आरोप लगाया है कि चाचा मेरा बढ़ता हुआ कद नहीं देखना चाहते थे। उनका आरोप है कि केंद्र में मंत्री बनने के चक्कर में पशुपति कुमार पारस ने रामविलास जी के विचारों को भुला दिया।
गुम हो गई दलित चेतना
राजनीतिक पंडितों का कहना है कि आजादी के बाद कांग्रेस के पास तीन वोटबैंक थे। दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम इन तीनों वोटबैंक के आसरे कांग्रेस 1990 तक केंद्र और प्रदेश की राजनीति में कब्जा जमाए रखी। 1977 से देश में पिछड़ा राजनीति का उदय हुआ। लगभग इसी दौर में राष्ट्रीय राजनीति में दलित चेतना का भी उदय होता। 1990 में वी पी सिंह बी.आर आंबेडकर का महिमामंडन कर दलितों को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे थे। कमंडल की राजनीति ने मुस्लिमों के लिए कई क्षेत्रीय क्षत्रपों को खड़ा कर दिया। इसी वक्त उत्तर प्रदेश और पंजाब में कांशीराम और मायावती की जोड़ी दलित राजनीति के आसरे पैर जमाने में लगी हुई थी। बिहार में रामविलास पासवान दलितों का चेहरा बने। मंडल कमीशन लागू करने में महती भूमिका के कारण रामविलास पासवान के पास मौका था कि वे दलितों और पिछड़ों दोनों का नेता बन सके। लेकिन सत्ता की चाहत में इन नेताओं ने कुर्सी को ही राजनीति का अंतिम पैमाना मान लिया। उत्तर प्रदेश में भी कुर्सी ही दलित राजनीति का अंतिम पायदान मान लिया गया। दलित चेतना और दलित उत्थान अब भाषण और शोधपत्र ही सीमित हो गया। दलित और हरिजन शब्द सत्ता की कुर्सी पर पहुंचने की बैसाखी बन गए।
कुर्सी के लिए कसरत
ऐसा माना जा रहा है कि महीने के अंत तक केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार होना है। एनडीए का हिस्सा रही लोजपा बिहार विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार के निशाने पर थी। केंद्रीय मंत्रिमंडल में लोजपा का शामिल होना मुश्किल था। लिहाजा पार्टी टूट गई। 1990 के बाद से ही रामविलास पासवान सत्ता की राजनीति कर रहे थे। उनकी विरासत को सही मायने में उनके भाई अंजाम तक पहुंचा रहे हैं। अब लगभग यह तय है कि स्व. पासवान के भाई सदस्य केंद्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा बनेंगे। परिवार के बीच ही कुर्सी बंटी है। इस पूरे घटनाक्रम में अगर किसी को नुकसान हुआ है तो वो है दलित वर्ग। लोजपा के पूरे संघर्ष में हर किसी के हिस्से कुछ ना कुछ आया है। स्व पासवान के भाई अगर मंत्री पद पाएंगे तो उनके पुत्र को पहली बार राजनीति का ककहरा पढ़ने का मौका मिला है। खाली हाथ बिहार का दलित समाज है, उसके पास राजनीतिक चलचित्र देखकर खुश होने और रोने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं। लोजपा के दोनों खेमों के लिए मुश्किल होगा अपने समर्थकों को यह समझाना कि जो भी हुआ उससे दलित समाज को क्या मिला? हालांकि यह सवाल अब दलित वर्ग की ओर से आना चाहिए कि मेरे वोट के आसरे कुर्सी पर बैठने वाले नेता बताएं कि आपके इस कसरत से समाज को क्या फायदा होगा?