मत खाना घास रे हिरणी
मत खाना तुम घास।
शिकारी बैठा ताक लगाए,
मत चरना तुम घास ।।
माँ-बाप ने पढ़ने भेजा
मन मे था विश्वास।
बेटी नाम रौशन करेगी
स्वपन लगाए आस ।
स्वपन लगाए आस पर
तो पानी फिर गया ।
पढ़ाई से मन उचटकर
प्रेम में पड़ गया ।
प्रेम में जो पड़ा रे मन
डाला शिकारी ने चारा।
जिस पर तन-मन वारा
अव्वल दर्जे का आवारा ।
अव्वल दर्जे का आवारा
डाला ऐसा घास ।
चरने को खातिर हिरणी
बेहद कर ली विश्वास।
बेहद कर ली विश्वास का
ही बन गया उपहास।
चिथड़ों में बन रहा गया
तेरा आत्मविश्वास ।
तेरा आत्मविश्वास का
बँट जाना टुकड़ों-टुकड़ो में
सभी हिरणियों को सबक,
मत दोहराना यह इतिहास।।
फूँक-फूँक कर कदम रखो
“लिव -इन-रिलेशन”को फूंको
हमारी सभ्यता का परिहास
बने गले का फांस।
मत खाना घास रे हिरणी
मत खाना रे घास।
शिकारी बैठा ताक लगाए
मत खाना तुम घास ।
डॉ सुनीता बेदी
जमशेदपुर, झारखंड