मुनव्वर, आपने तो हद कर दी…!
अफगानिस्तान पर तालिबानियों के कब्जे होने और पिछले दो दशक से खुली हवा में सांस लेने के आदी अफगानी अवाम पर तालिबानियों द्वारा कहर बरपाने के बीच देश के मशहूर शायर ‘मुनव्वर राणा’ ने जो कुछ कहा, को यहां दुहराना उचित नहीं समझता। बात अच्छी हो, हलक में बसने से लेकर बाहर निकलने लायक हो, तो कुछ सोचा भी जाय। मगर, उन्होंने तो ऐसी बात कह दी, जिसे सुन आम से खास तक भौंचक रह गए कि आखिर ‘मुनव्वर साहब’ ने यह बात कह कैसे दी..! अपनी बात को हलक से निकलने की इजाजत कैसे दे दी…!! इतना ही नहीं, इनके ऐसा कहने के बाद, देश के बुद्धिजीवीजन भी सकते में आ गए, और ऐसा सोचने को मजबूर हो गए कि क्या ऐसे क्षण में ‘मुनव्वर साहब’ को ऐसी ही लकीर खींचनी चाहिए थी!
सच कहा जाए, तो उनकी बातों को सुन मन में सवाल उठने लग गया कि आखिर मुनव्वर साहब ऐसा कैसे कह सकते हैं..? वे किसी इस्लामिक देशों के नागरिकों सरीखा वक्तव्य कैसे दे सकते हैं, जहां सब कुछ धर्म-मजहब के इर्द-गिर्द ही घूमता है और किसी सार्वजनिक विमर्श की राह बहुत ही संकीर्ण होती है..? इतना ही नहीं, कभी-कभी यह भी सोचने को मजबूर हो जाना पड़ता है कि आखिर इनकी कही बातों को किस तरह की श्रेणी में रखूं..? फिर, कभी-कभी यह भी सोचने को विवश हो जाना पड़ता है कि क्या, मुनव्वर साहब के दिल में भारतीय लोकतंत्र को लेकर इतना ही सम्मान शेष रह गया…? क्योंकि, एक ऐसा लोकतंत्र, जहाँ क्या नहीं मिला, के प्रति दिल में पूरा सम्मान अक्षुण्ण रखनेवालों की बोली कतई ऐसी नहीं हो सकती!
अपनी बातों को हलक से बाहर निकालने से पहले मुनव्वर साहब को इस बात का ख्याल अवश्य रखना चाहिए था कि जिस देश(भारत) में वो रह रहे हैं, वो दुनिया का सबसे बड़ा, सेक्युलर और उदार लोकतांत्रिक गणराज्य
है, जहां की खुली हवा में उनके सांस लेने और उनके स्वस्थ रहने की जितनी परवाह रखी और की जाती है, उतना देश के आम नागरिकों की नहीं। इतने के बावजूद, अगर किसी सेक्युलर और उदार लोकतंत्र का ‘प्रबुद्घ राणा’ ऐसी हल्की बात करने लगें, तो सेक्युलर और उदार लोकतंत्र का आगे बढ़ना तो छोड़िए, उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। भारत जैसे देश, जहाँ के बहुलतावादी समाज के भीतर कायम सह- अस्तित्व को और मजबूत करने और बनाने के लिए, किस तरह के शाब्दिक/भाषायिक संप्रेषण की जरूरत होती है, क्या यह भी साहब को किसी से सीखनी होगी!
अजीत राय।