…., जिम्मेदारी तो हमें उठानी ही होगी!
अजीत राय
पुनः याद दिलाना जरूरी समझता हूं कि मंगलवार को सदन के क्या घटना घटी। पेगासस जासूसी सहित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा को लेकर अड़े विपक्षी सदस्यों ने सदन के अंदर हंगामा तो शुरू किया ही। पर, किसी को अंदाजा नहीं था, यह हंगामा इस कदर विस्तार लेगा कि विपक्षी सदस्य जोश में आकर मेज पर चढ़ जाएंगे, काले कपड़े लहराएंगे और कुछ दस्तावेज और कागज के टुकड़े तक आसन की ओर फेंकने तक से बाज नहीं आएंगे…! पर, सच तो यही है कि ऐसा हुआ। इस घटना का जिक्र यहाँ न भी करता, तब भी चलता। मगर, करने के पीछे वजह जो है, उसे हम भारतीय लोकतंत्र की विशेषता कहें या विडंबना, यह अपने आपमें एक बड़ा सवाल है। क्योंकि, हमारी आदत ही ऐसी हो गई है कि कुछ पल तो हम घटना के साथ खड़े होते हैं, घटना के प्रति हमारी हमदर्दी भी होती है, और फिर किसी बहाने को आगे कर, घटना को बिसार, घटना के बिना जीना सीख लेते हैं। और, हमारी यही आदतें, किसी घटना की पुनरावृत्ति के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। लिहाजा, हमें अपनी इन आदतों के प्रति भी चौकन्ना और सावधान रहने की जरूरत है।
सच कहा जाए, तो पिछले कुछ सालों से सदन के अंदर से लेकर सदन के बाहर तक हो रही सियासत पर पूरी ईमानदारी से नजर डालें, तो देश की सियासत अपनी सियासी रवायतों को बिसार भटकी हुई नजर आती है। मगर, दुर्भाग्य इस बात की है कि इसकी परवाह किसी को नहीं है। न तो सत्तापक्ष को, और न ही, देश के सियासी विपक्ष को…! आखिर, हो भी तो क्यों? इन्हें इसकी परवाह इसलिए नहीं होती, क्योंकि इनकी ऐसी किसी करतूतें, जिससे की देश का मस्तक नीचा हो, की आलोचना, निंदा, तो हम करते जरूर हैं, पर ‘एक स्वर’ में नहीं करते। और, ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि चाहे- अनचाहे, हम मानसिक तौर पर देश की संक्रमित राजनीतिक विचारधारा/शैली के शिकार हो गए हैं। हमारी आस्था और विश्वास जिस दल के प्रति होती है, उसकी रीति-नीति चाहे देशहित के माफिक हो या ना हो, हम उसकी जय-जय करने लगते हैं। और न ही, तो फिर हमारा आचरण ठीक इसके विपरीत होता है। जबकि, ऐसा होना नहीं चाहिए..! होना तो यह चाहिए कि देश को अपनी सियासी रवायतों और आंखों की शर्म पर भरोसा हो। और, अगर हम ऐसी स्थिति में अपने- आपको नहीं पा रहे, तो यह मानकर चलना होगा कि हमारी आंखों का पानी सूख रहा है।
आज का दिन हमारे लिए गौरव का पल है। आज हम आपनी आजादी का 75 वीं वर्षगाँठ मनाने जा रहे हैं। पर, अपनी सियासी रवायतों को बिसारकर, शर्मसार कर और चोट पहुंचाकर, ऐसी वर्षगाँठ मनाने का क्या मतलब! क्योंकि, ऐसे में, हमारी आजादी, अपनी 75 वीं वर्षगाँठ के अर्थ को प्राप्त नहीं कर सकती।
लेखक बिहार के वरिष्ठ अधिवक्ता है