एक ग़ज़ल आप दोस्तों की मोहब्बतों की नज़र
आईना भी कभी बना ख़ुद को
सामने खुद के भी तो ला ख़ुद को।
ऐसे होने का कोई मतलब था?
कर लिया आपसे जुदा ख़ुद को।
ज़ब्त तो ठीक था, मगर कबतक
कोई कितना संभालता ख़ुद को।
हमने गर्दन जरा झुका दी क्या
तुम समझने लगे खुदा ख़ुद को।
आदमी रहना था बहुत मुश्किल
कर गए लोग देवता ख़ुद को।
उम्र भर मुंतजिर रखीं आंखें
उम्र भर खोल कर रखा ख़ुद को।
आप भी अपना कब तलक रखते
मैं ने ख़ुद भी कहां रखा ख़ुद को।
पहले ज़ंजीर की बड़ी मेरी
बाद में कर गया रिहा ख़ुद को।
छोड़! अब उसको भूल जा तू भी
शैल! रहने दे, मत सता ख़ुद को।