भूमिहारों के रॉबिन हुड थे शहीद ब्रह्मेश्वर मुखिया
– पूर्व डीआईजी श्री सुधीर सिंह
स्व. बाबू ब्रह्मेश्वर मुखिया से मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई । लेकिन भूमिहारों की बस्तियों का बच्चा – बच्चा उनके नाम से वाकिफ था । सरकार की नजर में वे अपराधी थे, पर भूमिहारों की निगाह में वे रॉबिन हुड थे । उन्होंने बिहार में नक्सलियों के ताण्डव पर लगाम लगायी थी । नक्सली आये दिन थानों पर आक्रमण कर पुलिसकर्मियों की हत्याएँ कर उनकी राइफलें लूट रहे थे, जहाँ तहाँ जनता – दरबार लगाकर भूमिहार किसानों की हत्याएँ कर रहे थे, लेवी देने से इनकार करनेवाले किसानों के खेतों पर पाबन्दी लगा रहे थे , खलिहानों में इकट्ठी फसलों में आग लगा रहे थे । उनका धर्मग्रंथ था बिहार के जलते खेत और खलिहान जिसकी रचना शायद माले नेता स्व विनोद मिश्रा ने की थी ।जहानाबाद , गया और भोजपुर में इनका लक्ष्य भूमिहार किसानों को जमीन छोड़कर भागने के लिए बाध्य करना था । कहा जाता है कि 1980 में आईपीएफ के गठन के एक वर्ष के भीतर जहानाबाद और गया क्षेत्र में बावन भूमिहार मुखिया की हत्या की गयी थी ।
भोजपुर जिले के खोपिरा गाँव में पैदा हुए ब्रह्मेश्वर मुखिया का परिवार भी नक्सली ताण्डव का शिकार हुआ । उनके तीन भाइयों की हत्या कर दी गयी थी । खेतों पर लाल झंडे गाड़कर खेती पर पाबन्दी लगा दी गयी थी । इसीतरह सहार और संदेश के अन्य भूमिहार किसानों के साथ भी हुआ था ।
ध्यातव्य है भोजपुर से गुजरनेवाली रेलवे लाइन नक्सली कार्रवाई की सीमा -रेखा बन गयी थी । इस लाइन के दक्षिण भूमिहारों की और उत्तर राजपूतों , यादवों , कुर्मियों की बस्तियाँ हैँ । उत्तर के किसान नक्सली आतंक से मुक्त थे ।
इसतरह स्पष्ट है कि नक्सलियों द्वारा सिर्फ भूमिहार किसानों को लक्ष्य बनाया जा रहा था । उनकी राइफलें छीनी जा रही थीं , उनके घरों को विस्फोट कर उड़ाया जा रहा था , उनके सम्मानित लोगों की हत्या की जा रही थीं और इससे भी आगे बढ़ते हुए बड़ी -बड़ी भूमिहार बस्तियों को रात के अँधेरे में घेरकर नरसंहार किया जा रहा था ।
उस समय लालू जी की सत्ता थी । नरसंहार के बाद लालू जी या राबड़ी देवी के मुँह से सहानुभूति के कोई शब्द नहीं निकलते थे । हद तो तब हो गयी थी जब श्रीमती राबड़ी देवी ने विधान -सभा में खुलेआम कह दिया कि सेनारी के नरसंहार -पीड़ितों से मिलने मैं क्योँ जाऊँ , क्योंकि वहाँ तो भूमिहार मरे हैँ ।
इसतरह मुझे तो यही समझ में आता है कि भूमिहारों के खिलाफ हो रहे जघन्य अपराधों के गुनहगार जनता दल के जातीय नायक ही थे ।नक्सलियों का वास्तविक नेतृत्त्व यादवों और कुर्मियों के हाथ में था ।
झारखण्ड में मुसलमानों और राजपूतों ने नक्सलियों के विरुद्ध सनलाइट सेना का गठन किया था । दलेलचक बघौरा में 52 राजपूतों का कत्ल हुआ था । सनलाइट सेना कमजोर पड़ने लगी थी । तभी राजनीति के पटल पर श्री लालू यादव का अवतरण होता है । राजपूत और मुसलमान लालू जी के साथ हो जाते हैँ और फिर राजपूतों और मुसलमानों के विरुद्ध नक्सलियों का ताण्डव रुक जाता है । यह भी इस बात का प्रमाण है कि नक्सलियों की कमान यादवों के हाथ में थी ।
सत्तासीन श्री नीतीश कुमार जी ने नक्सली कमांडर के रूप में कुख्यात श्री उदय नारायण चौधरी को विधानसभा अध्यक्ष बनाकर नक्सलियों की दूसरी शाखा पर अपने प्रभाव का परिचय दिया था ।
डॉ श्रीकृष्ण सिंह के ही समय जहानाबाद और मुंगेर के लखीसराय में यादवों और भूमिहारों के बीच भयानक जातीय संघर्ष हुए थे । भूमिहारों को अहसास नहीं था कि उस समय की घटनाएँ महज शुरुआत थीं ।मेरी समझ से ’80 के दशक की घटनाएँ ’52 के ही जहर का विस्तार थीं । इस जहर का औद्योगिक उत्पादन स्व बाबू रामलखन सिंह यादव के नेतृत्त्व में हुआ और फिर भूरा बाल साफ करो के नारे के साथ इसकी पूर्णाहुति हो गयी ॥
लेकिन सिर्फ यादवों को ही दोष नहीं दिया जा सकता । सुनते हैँ स्व बाबू जगदेव महतो जनसभाओं में खुले मंच से कहते थे ‘ भूमिहारन के गोरे -गोरे हाथों से धान की रोपनी करवाएंगे । ‘ एक जाति -विशेष के आत्म-सम्मान के विरुद्ध जन -नेताओं का संभाषण उस समय की राजनैतिक दिशा का संकेत देता है ।
राजबल्लभ यादव (नवादा ), सुरेंद्र यादव (गया ) और अशोक महतो (वारिसलीगंज ) के नेतृत्त्व में भूमिहारों के विरुद्ध गृह -युद्ध ही तो चल रहा था । पटना में स्व इंद्रदेव चौधरी के नेतृत्त्व में पटेल छात्रावास पटना विश्वविद्यालय कैम्पस की कमान सम्हाले हुए था ।
इसतरह मुझे लगता है कि ‘ 80 के दशक के खूनी खेल का सूत्रधार त्रिवेणी संघ ही था जो कुर्मीयों , यादवों और कोयरियों का संघ था । इस संघ का नारा तो ब्राह्मण विरोध था पर इसका व्यावहारिक रूप भूमिहार -विरोध में बदल गया था ।
मुझे याद है नालन्दा जिले के नोआवाँ गाँव के पंडित गौरी पाण्डे (श्रोत्रिय ब्राह्मण ) ने 1972 में ही कहा था – ‘ ‘ आपलोग भी तैयारी कीजिए । कुर्मी लोग आपलोगों से युद्ध की तैयारी कर रहे हैँ । ‘ ‘ उस समय उनकी बात मजाक लगी थी । लेकिन शायद उन्होंने सच कहा था ।
बिहार के ’80 और ’90 के दशक की राजनीति के केंद्र में भूमिहार ही थे ॥ सबसे बड़ा नेता वही था जो चौक चौराहों और मंचों पर भूमिहारों को गाली देने में सक्षम था ।सबसे लोकप्रिय अफसर भी भी वही था जो भूमिहारों को लतियाने में जन्नत महसूस करता था । शायद नेता बनने का सबसे आसान रास्ता यही था । शायद आज भी कुछ लोग वही रास्ता अपनाना चाह रहे हैँ । लेकिन यह बुद्धिहीनता है ।
भूमिहारों के प्रतीक हैँ शंकर जिनकी एक लट से उत्पन्न वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति का विध्वंस कर दिया था ।श्रद्धेय स्व बाबू ब्रह्मेश्वर मुखिया जी भी भूमिहारों की एक लट मात्र थे । उनके साथ पूरे भूमिहार समुदाय की ताकत नहीं थी , हालाँकि पूरा भूमिहार समुदाय उन्हें पूज्य मानता था /है ।
भूमिहारों को अपमानित कर कोई भी व्यक्ति लम्बी राजनीति नहीं कर सकता , क्योंकि बिहारी जनसंख्या के सशक्त घटक हैँ भूमिहार । भूमिहारों के स्वाभिमान को आहत करने की नीति का परित्याग किये वगैर हम बिहार में शांति और सद्भाव कायम करने में सफल नहीं हो सकेंगे । हत्या और प्रतिशोध प्रांत के लिए हितकर नहीं है । सूबे का विकास ही अवरुद्ध हो गया है । 24 लाख बिहारी दूसरे प्रान्तों में मजदूरी कर रहे हैं -यह जानकर हर बिहारी को दुःखी होना चाहिए । लेकिन इसके निदान का एकमात्र रास्ता सद्भावपूर्ण एकता से होकर ही जाता है । बिहार को साम्यवाद , समाजवाद और लोहियावाद की नहीं सामंजस्य और सद्भाव की जरुरत है ।
जय हिन्द , जय भारत
साभार ब्रह्मर्षि पत्रिका