कोरोना काल में केंद्र और राज्य सरकार स्वास्थ्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दे रही है उसमें सरकार को सफलता भी मिली है। स्वास्थ्य विभाग भी पूरी ईमानदारी के साथ काम करते रहा है, परंतु केंद्र और राज्य सरकार के प्रयासों पर पलीता लगाने में कुछ नर्सिंग होम पीछे नहीं हट रहे हैं, उसी कड़ी में हम ब्रह्मानंद हॉस्पिटल के आंखों देखा हाल आपके समक्ष रख रहे हैं।
यह घटना क्षेत्र के एक प्रसिद्ध अस्पताल की है, जो ना सिर्फ अस्पताल की, बल्कि पूरे स्वास्थ्य विभाग की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाती है।
पिछले हफ्ते, एक बुजुर्ग मरीज ब्रह्मानंद नारायण अस्पताल के ओपीडी में आते है, उन्हें एनिमिया की शिकायत है। ओपीडी में डाक्टर उनके परिजनों को यह बताते हैं कि साधारण प्रक्रिया में दवाओं द्वारा इलाज करने पर काफ़ी समय लग जायेगा, इसलिए बेहतर यही होगा कि उन्हें 1-2 दिन के लिए भर्ती कर के 2 यूनिट ब्लड ट्रांसफ़्यूजन कर दिया जाये।
मरीज को सिर और पैर में दर्द की शिकायत है, तो उनके परिजनों ने डाक्टर की बात मान ली, और मरीज को अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। अस्पताल ने अपने ब्लड बैंक से खून चढ़ाने की बात कही, तो परिजनों द्वारा रिप्लेस्मेंट के तौर पर, 2 यूनिट रक्त भी उपलब्ध करवा दिया गया। सब कुछ बिलकुल सही चल रहा था कि अचानक, दो दिनों बाद मरीज बिस्तर से उठने में भी असमर्थ हो जाता है।
दो दिन पहले अपने पैरों पर चल कर आये मरीज की हालत इतनी ख़राब क्यों और कैसे हो गई, अस्पताल प्रबंधन या डाक्टर के पास इसका कोई जबाब नहीं है। 2 दिन और बितने पर, मरीज बिस्तर पर बैठने लायक भी नहीं रहता है, और तब, उनके परिजनों को पता चलता है कि अस्पताल, बिना उनकी जानकारी के, उन्हें रोज शाम नींद का एक इंजेक्शन दे रहा है। परिजनों द्वारा पूछने पर नर्स के पास कोई संतोषजनक जबाब नहीं होता, और डॉक्टर कुछ नहीं बताते। फिर मरीज के परिजनों को बताया जाता है कि मरीज को बैलन्सिंग से सम्बंधित समस्या हो गई है, जिसके लिए न्यूरो विभाग से कोई डॉक्टर उन्हें देखेंगे।
अगले दिन (रविवार) को मरीज की हालत जस की तस रहती है, लेकिन न्यूरो विभाग से कोई भी चिकित्सक उन्हें देखने नहीं आता। पूछने पर पता चलता है कि डाक्टर ने इस बात का निर्देश ही नहीं दिया। जब उन्हें न्यूरो विभाग से किसी को बुलाने हेतु कहा जाता है, तो वे रविवार का हवाला देते हुए, अस्पताल उस से इनकार कर देता है। मरीज की बिगड़ती हालत के बीच, उनके परिजनों के सब्र का बांध अब टूट जाता है, तो मामले की शिकायत ज़िले के वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारियों से की जाती है। इसके बाद, उनकी सलाह पर, परिजन मरीज को दूसरे अस्पताल में ले जाने की तैयारी करते हैं।
अब उन्हें बिलिंग काउंटर पर भेजा जाता है, जहाँ वे यह देख कर हतप्रभ रह जाते हैं कि उनके बिल में हर दिन एक पीपीई किट की कीमत (1650/- प्रति दिन) जोड़ी गई है, जबकि वास्तव में मरीज को किसी भी दिन पीपीई किट नहीं दी गई। उस बारे में पूछने पर अस्पताल के कर्मचारी कहते हैं कि यह वास्तव में उस पीपीई किट के लिए है, जो उनके स्टाफ पहन रहे हैं। इसपर परिजन यह कह कर विरोध जताते हैं कि आपके स्टाफ़ तो सभी मरीज़ों को देख रहे हैं, फिर उसके पीपीई किट के लिए हम क्यों भुगतान करें, तब स्टाफ द्वारा परिजनों के साथ बदतमीजी की जाती है। फिर एक बार, जिले के वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा हस्तक्षेप करने के बाद, अस्पताल उस राशि को बिल से हटाता है।
पिछले हफ्ते घटी यह घटना, इस क्षेत्र में काफ़ी प्रसिद्ध ब्रह्मानंद नारायण अस्पताल की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाती है, और इस से यह भी प्रश्न उठता है कि क्या सिर्फ बिल बढ़ाने हेतु, मरीज़ों को जानबूझ कर परेशान किया जाता है? क्या बिना किसी समस्या के, नींद और अन्य दवाओं द्वारा मरीज़ों को लम्बे समय तक उलझाये रखा जाता है?
आखिर, पीपीई किट और अन्य सामान, जो वास्तव में मरीज़ों को नहीं दिए जाते, का बिल मरीज क्यों दे? आखिर अस्पताल को इस तरह लूट की छूट किसने दी? क्या मामले के सामने आने के बाद अस्पताल की कार्यप्रणाली के खिलाफ जाँच होगी? या फिर इन्हें इसी प्रकार आम जनता को लूटने की छूट मिलती रहेगी? सवाल कई हैं, जिसका जबाब अस्पताल प्रबंधन, और स्वास्थ्य विभाग को देना है, ताकि फिर किसी मरीज के साथ ऐसा ना हो। देखना है कि झारखंड सरकार का स्वास्थ्य विभाग और सिविल सर्जन सरायकेला के साथ पूर्वी सिंहभूम इस पूरे मामले पर कितनी गंभीरता दिखाती है या फिर मरीजों का शोषण इनके रुतबे के आगे होता रहेगा?