भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या 70 लाख से पार पहुंच चुकी है. इसका इलाज आम आदमी के बूते से बाहर है. यही कारण है कि लोगों के बीच बढ़ते रोष के मद्देनजर अधिकांश राज्य सरकारों में कोरोना का इलाज पर खर्च की सीमा तय की है. लेकिन यह अब भी इतना महंगा है कि अगर घर का एक सदस्य भी इसकी चपेट में आता है तो 80 फीसदी परिवारों की आर्थिक स्थिति खराब हो जाएगी. आंकड़ों के मुताबिक अगर किसी व्यक्ति को दस दिन भी अस्पताल में इलाज करवाना पड़ा तो इसका बिल उसके परिवार के मासिक खर्च गुना ज्यादा होगा.
रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति खर्च दिल्ली में है. यहां 80 फीसदी आबादी का प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 5,000 रूपये से कम है. यानी 5 लोगों के परिवार पर यह 25,000 रूपये बैठता है. दिल्ली में सबसे सस्ता आइसोलेशन बेड का 10 दिन का खर्च 80,000 रूपये है. यह 80 फीसदी आबादी के मासिक खर्च से 3 गुना से भी ज्यादा है. कोरोना कोई मरीज वेंटिलेटर सपोर्ट पर है तो इलाज का बिल कई लाख रूपये हो सकता है क्योंकि उसे ठीक होने में दो से तीन हफ्ते लग सकते हैं.
एक अंगे्रजी अखबार ने 20 राज्यों में आइसोलेशन बेड्स, वेंटिलेटर के बिना और वेंटिलेटर के साथ आईसीयू बेड्स पर आने वाले खर्च और उन राज्यों पर प्रति व्यक्ति खर्च का तुलनात्मक अध्ययन किया. इसके मुताबिक इलाज के खर्च की सीमा तय किए जाने के बावजूद यह 80 फीसदी परिवारों के बूते से बाहर है. सभी राज्यों में कोरोना का इलाज सरकारी अस्पतालों में मुफ्त है. लेकिन नॉन-कोविड के दौर में भी केवल 42 फीसदी मरीज ही सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाते हैं.
सरकारी अस्पतालों से रेफर किए गए मरीजों और सरकारी हेल्थ स्कीमों को तहत आने वाले मरीजों के लिए इलाज पर खर्च की सीमा तय की गई है. हालांकि रसूखदार लोगों को ही सरकारी से निजी अस्पतालों में रेफर किया जाता है. तेलंगाना, कर्नाटक और ओडिशा जैसे राज्यों में सभी मरीजों के लिए प्राइस कैप लागू है. लेकिन अलग-अलग राज्यों में पीपीई, सीटी और एमआरआई और दवा की लागत तथा स्पेशलिस्ट चार्ज अलग-अलग है. निजी अस्पताल भी प्राइस कैप को चकमा देने के लिए कई तरीके अपनाते हैं. दिल्ली जैसे कई राज्यों में प्राइस कैप को लागू करवाने की कोई व्यवस्था नहीं है.