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    Home » भारत को व्यवसायिक मित्र नहीं वास्तविक मित्र चाहिए
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    भारत को व्यवसायिक मित्र नहीं वास्तविक मित्र चाहिए

    News DeskBy News DeskMay 22, 2025No Comments5 Mins Read
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    प्रोफेसर केपी शर्मा
    मेरे इस आलेख लिखने का मतलब है चार दिनों के छोटे से युद्ध में हमारी तीन उपलब्धियां दिखाई पड़ा।
    सबसे पहले अपने आंतरिक ताकत का पता चला, अपने निर्मित युद्धक सामग्रियों की विशेषता, कमजोरी तथा हमें क्या चाहिए इसका पता चला।
    युद्ध के समय पता चला कि हमारे कौन दोस्त हैं और कौन दुश्मन है,कौन आस्तीन का सांप है, तथा कौन व्यापारिक दोस्त है,यह भी पता चला कि हमारे सन्धि समझौता कितना व्यवहारिक है या कागज के घोड़े हैं, अंतरराष्ट्रीय संगठन में कितना जान है या वे भरोसे के लायक हैं या नहीं।
    आज हमारी ताकत क्या है और कमजोरी कहां है।
    एक बात जो स्पष्ट नजर आया कि विश्व के बड़े देशों को देखने का नजरिया शक्तिमान भारत को देखने का नहीं है। अर्थात शक्ति के राजनीति के पुराने खिलाड़ी भारत को शक्तिशाली राष्ट्र देखना नहीं चाहते हैं अर्थात इनके साथ दोस्ती साधना खतरे से खेलना है।
    भारत के प्रति औपनिवेशिक काल में भी भारत को व्यवसायिक नजर से एक विशाल राज्य विशाल बाजार के रुप में देखने का नजरिया था आज वह कुछ और ज्यादा तीव्र होगया है। इसका कारण है कि भारत आज औपनिवेशिक काल से ज्यादा सम्पन्न है तथा आज यह पुरे दुनिया केलिए खुला बाजार है जो पहले सिर्फ ब्रिटेन केलिए खुला बाजार था भारत ही वह कारण था जिसके सहारे ब्रिटेन में कभी सूर्य नहीं डुबने बाला साम्राज्य स्थापित किया था लेकिन आजादी के बाद भारत का बाजार सबों केलिए खुला है।
    आज 21वीं शताब्दी में भारत ज्यादा महत्वपूर्ण होगया है कारण भारत कि 140 करोड़ लोगों का बाजार है जहां मध्यम आय वर्ग के लोगों की बढ़ती संख्या के कारण पर्चेजिंग पावर ही नहीं बढ़ा है वल्कि उपभोक्तावादी मनोवृत्ति में जबर्दस्त विकास हुआ है।
    एक परिवर्तन और जबर्दस्त हुआ है कि भारत तकनीकी रूप में भी विकसित हुआ है तथा यहां बड़ी संख्या में सस्ते मजदूर उपलब्ध है इसलिए विदेशी पूंजी पति सिर्फ पूंजी ट्रांसफर और उसका प्रबंधन कर भारी मुनाफा कमा सकते हैं तथा यहां के शासन में उनके व्यापार संचालन केलिए यहां स्थायित्व और शांति है।
    एक ओर पूंजीपतियों केलिए भारत एक मौका है जहां वे पूंजी लगाकर कमा सकते हैं तो दूसरी ओर विश्व राजनीति में शक्ति की राजनीति के खेल करने वाले अपने लिए चुनौती मानते हैं कि भारत जब खुद विकसित हो जायेगा तो फिर वह विकसित देशों का बाजार नहीं रहेगा,इस युद्ध के काल में जो ट्रंप ने ऐपल के मालिक को भारत से अलग रहने की सलाह, आदेश सुना तो रहे हैं लेकिन पूंजी पतियों की नीति मुनाफा और अधिक मुनाफा की है वह जहां मिलेगा वहीं जायेगा।
    एक समय अमेरिका के शासन ने चीन से चिरौरी कर अपने पूंजीपतियों को चीन भेजा इसका परिणाम हुआ कि अमेरिका से पूंजी, टेक्नोलॉजी ड्रेन होकर चीन और बाहर चला गया अब अमेरिका मैन्युफैक्चरिंग और पूंजी का हब नहीं रहा तथा पूंजी पति पर भी उसका पकड़ नहीं रहा,अब अमेरिका को तो लोपेड भारतीय और विदेशी संभाल रहे हैं अमेरिका तो खोखला हो गया है और हो जाएगा।
    अब अमेरिका जैसी शक्तियों के पास एक ही विकल्प बचा है कि भारत के उत्थान को रोके।
    अमेरिका के अति प्रलोभन के कारण चीन का उत्थान हुआ और वह चुनौती बन गया है, भारत के साथ यही गलती दुहराने का मतलब होगा शक्ति का धुरी केंद्र पश्चिमी जगत से बदल कर एशिया में आयेगा।
    शक्ति केंद्र आसानी से बदल सकता है लेकिन यहां बाधक है चीन की विस्तार वादी नीति तथा अमेरिका का अपने एक ध्रुवीय शक्ति को बनाये रखने की चाहत दूसरा बाधक है। अमेरिकी ऐजेंट देश पाकिस्तान जैसे देशों की पालन पोषण करता रहा है जिससे क्षेत्रीय शांति भंग होते रहती है।
    पश्चिमी शक्तियों की सबसे बड़ी चाल है जिसमें वे सफल हैं कि ऐशियाई और अफ्रीकी देशों में ये प्रजातंत्र के शत्रु बने हुए हैं और थोपी हुई सैनिक शासन, राजशाही के समर्थक बने हुए हैं जिससे विश्व का कोई न कोई कोना हमेशा अशांत रहता है।
    विश्व और क्षेत्रीय अशांति का ऐक कारण धार्मिक कट्टरवाद को सहारा देना पश्चिमी शक्तियों की चाल है जिससे लोगों का ध्यान पश्चिमी शक्तियों के कुटिल राजनीति को नहीं समझ पा रहे हैं।
    भारत वर्ष को इस युद्ध ने बताया है कि वह किसे अपना दोस्त समझे।
    भारत के पास आज सबसे बड़ी ताकत है उसका अपना विशाल बाजार,यह एक जबरदस्त हथियार है। अपने बाजार वह वैसे देशों केलिए ही खोले जो हमारे लिए भी अपने बाजार खोलने को तैयार हों।
    अच्छा रहेगा कि पश्चिमी देशों के साथ हमारे सिर्फ कुट नीतिक संबंध हों और बराबरी के आधार पर संवध हों।
    हमारा व्यापार का निर्धारण डालर के आधार पर नहीं हो जो रुपए और द्विपक्षीय देश के रुपए के द्वारा होना चाहिए।
    हमें क्वाड जैसे सन्धि से अलग होकर अलग समान शक्तियों के साथ समझौता करना चाहिए हमें अमेरिका जैसे कोई वैलेंसर पावर या एक ध्रुवीय देश के साथ समझौता नहीं करना चाहिए।
    UN का पुनर्गठन की हम आवाज बनें, हमें पेपर टाईगर संगठन का सदस्य नहीं रहना चाहिए। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड का विश्व संगठन चाहिए।Veto Power सम्पन्न कोई संगठन गैर प्रजातांत्रिक है।
    भारत को इस युद्ध से यह पता चला कि वर्तमान और भविष्य की हमारी शक्ति मेक इन इण्डिया ही होगा।
    हम इन्कार नहीं करते कि शांति आवश्यक है लेकिन जब तक दुष्ट शक्तियां रहेगी हमें युद्ध के लिए तैयार रहना पड़ेगा।
    भारत को शक्तिशाली होने का मतलब नहीं होगा कि हम किसी के भय का कारण बनेंगे। वसुधैव कुटुंबकम् ही हमारा आदर्श रहेगा लेकिन यह कमजोर का नारा नहीं होगा यह हमारे संतुष्टि की पहचान होगी।
    अंत में मैं भारत के विदेशनीति में बदलाव चाहेंगे यह हमारे जैसे लोगों का विचार हैं।

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