देवानंद सिंह
पुकार एक नहीं, अनेक हैं, लेकिन इस बार स्वर में गूंज है दृढ़ निश्चय की, और लय है प्रतिरोध की। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुए आतंकवादी हमले ने देश की सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है। इस हमले में निर्दोष नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों की शहादत ने एक बार फिर उस कटु सत्य की याद दिला दी है कि आतंकवाद न केवल एक सैन्य चुनौती है, बल्कि यह भारत की एकता, अखंडता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर एक सोची-समझी चोट है।
इस पृष्ठभूमि में गत दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने आवास पर आयोजित उच्चस्तरीय बैठक अत्यंत महत्वपूर्ण है। बैठक में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, थल, वायु और नौसेना के प्रमुख, तथा चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान की मौजूदगी इस बात का संकेत देती है कि भारत अब इस चुनौती से पारंपरिक प्रतिक्रिया के बजाय ठोस और सटीक रणनीतिक दृष्टिकोण से निपटना चाहता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस बैठक में जो सबसे महत्त्वपूर्ण संदेश दिया, वह यह था कि सशस्त्र बलों को जवाबी कार्रवाई का तरीका, लक्ष्य और समय तय करने की पूरी छूट दी गई है। यह वक्तव्य न केवल भारतीय सेना की पेशेवर योग्यता में सरकार के विश्वास को दर्शाता है, बल्कि यह उन आलोचकों को भी स्पष्ट संदेश है, जो अक्सर राजनीतिक नेतृत्व द्वारा सैन्य कार्रवाई पर अंकुश लगाने की बात करते हैं।
यह स्वतंत्रता सशस्त्र बलों के लिए एक रणनीतिक स्पेस प्रदान करती है, जो उन्हें परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने और सीमित समय में कार्यवाही करने में सहायक होगी। यह नीति ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘बालाकोट एयरस्ट्राइक’ जैसी पिछली कार्रवाइयों के अनुभव पर आधारित है, जहां सैन्य बलों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता दी गई थी। बैठक समाप्त होने के तुरंत बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत का प्रधानमंत्री आवास पहुंचना एक प्रतीकात्मक घटना मात्र नहीं है। संघ और भाजपा के बीच वैचारिक और सांगठनिक संबंधों को देखते हुए यह मुलाकात कई संभावित संदेशों को जन्म देती है। यह संभावना जताई जा रही है कि इस बैठक का विषय भी पहलगाम हमला ही रहा, जो यह संकेत देता है कि अब इस विषय पर केवल सरकार नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी सामाजिक संगठनों की भूमिका और अपेक्षाएं भी केंद्र में आ गई हैं।
आरएसएस ने इस आतंकी घटना को भारत की “एकता और अखंडता पर हमला” करार दिया है और सभी राजनीतिक दलों से मतभेद भुलाकर एक स्वर में आतंकवाद की निंदा करने की अपील की है। यह बयान भारत में आंतरिक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों की राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति संवेदनशीलता और संलग्नता को दर्शाता है। भारत में जब भी कोई बड़ा आतंकी हमला होता है, तो राजनीतिक विमर्श में दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं। एक ओर विपक्ष सरकार की खुफिया विफलताओं की ओर ध्यान दिलाता है, वहीं सरकार निर्णायक कार्रवाई का आश्वासन देती है। किंतु इस बार का घटनाक्रम कुछ अलग दिखता है। RSS जैसे गैर-राजनीतिक संगठन की पहल और प्रधानमंत्री द्वारा सर्वदलीय निंदा की आवश्यकता पर बल देना यह दर्शाता है कि सरकार इस चुनौती को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय समस्या के रूप में देख रही है। ऐसे समय में, यह अपेक्षित है कि सभी राजनीतिक दल अपनी प्राथमिकताओं में राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोपरि रखें। आतंकवाद से लड़ाई न तो केवल सैन्य है और न ही केवल राजनीतिक। यह राजनीतिक दलों, नागरिक समाज और आम नागरिकों का एक साझा संकल्प है।
भारत ने वर्षों से यह सिद्ध किया है कि वह आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में केवल सैन्य माध्यमों पर निर्भर नहीं रहता। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ने पाकिस्तान की भूमिका को उजागर करने और आतंकवाद को समर्थन देने वाले तत्वों के विरुद्ध वैश्विक संप्रेषण बनाने का प्रयास किया है। हाल की घटनाओं को देखते हुए यह अनिवार्य है कि भारत फिर से इस मोर्चे पर सक्रिय हो। संयुक्त राष्ट्र, जी20, और शंघाई सहयोग संगठन जैसे मंचों का उपयोग करते हुए भारत को यह स्पष्ट करना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में हो रहे आतंकवादी हमले न केवल भारत के खिलाफ हैं, बल्कि वैश्विक लोकतंत्र और मानवाधिकारों के विरुद्ध एक सुनियोजित अपराध हैं।
प्रधानमंत्री द्वारा सेना को ‘पूरी छूट’ देना एक रणनीतिक संकेतक है, लेकिन इसके व्यावहारिक पहलुओं को भी समझना जरूरी है। सीमापार कार्रवाई, विशेष बलों का संचालन, या हवाई हमले—इन सभी के अपने-अपने जोखिम, लाभ और कूटनीतिक निहितार्थ हैं। कोई भी कार्रवाई करते समय भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह नैतिक उच्चता बनाए रखे, नागरिकों की क्षति न हो, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को साथ रखा जाए। साथ ही, देश के अंदर खुफिया तंत्र को भी और मजबूत करने की आवश्यकता है। आतंकवाद का मुकाबला केवल सीमा पर नहीं होता, बल्कि हर शहर, गांव और नेटवर्क में भी होता है। आतंकवाद का उद्देश्य केवल शारीरिक क्षति नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक दहशत फैलाना भी होता है। भारत जैसे विविधताओं से भरे लोकतंत्र में आतंकवाद का हर वार सामाजिक सौहार्द पर चोट करने का प्रयास होता है। ऐसे में, RSS जैसे संगठनों की यह अपील कि राजनीतिक दलों और संगठनों को अपने मतभेदों से ऊपर उठना चाहिए बहुत ही मौलिक है।
यह समय है जब धर्म, जाति, राजनीति और भाषा की सीमाओं को लांघकर भारतवासी एकजुट हों। आतंकवादी यही चाहते हैं कि हम बंट जाएं, लेकिन यही वह क्षण है जब हमें यह सिद्ध करना है कि भारत केवल एक देश नहीं, एक अटूट संकल्प है। पहलगाम हमला भारत के लिए एक और चेतावनी है, लेकिन यह केवल दुख या क्रोध का क्षण नहीं, बल्कि आत्म पुनरावलोकन और पुनर्संरचना का भी अवसर है। अब वक्त आ गया है कि भारत एक बहुस्तरीय नीति बनाए, जिसमें सैन्य जवाब, कूटनीतिक दबाव, आंतरिक सुरक्षा में सुधार, और राष्ट्रीय एकता, सभी को एक साथ संचालित करें। प्रधानमंत्री मोदी की बैठक और मोहन भागवत की तत्परता इस दिशा में प्रारंभिक संकेत हैं। अब इसे एक समग्र राष्ट्रीय प्रयास में बदलने की आवश्यकता है, जहां आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई केवल सरकार की नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की हो।