देवानंद सिंह
पहलगाम में हुआ हालिया आतंकी हमला न केवल जम्मू-कश्मीर की शांति को चुनौती है, बल्कि यह भारत की संप्रभुता, सुरक्षा और धैर्य की परीक्षा भी है। इस हमले में निर्दोष नागरिकों की जानें गईं और एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ कि भारत को निशाना बनाने वाली आतंकवादी मानसिकता अब भी जिंदा है, और उसे सीमा पार से पोषित किया जा रहा है, हालांकि इस बार भारतीय राजनीति, समाज और सरकार की प्रतिक्रिया कुछ अलग है, जिस एकजुटता की उम्मीद अक्सर संकट के समय की जाती है, वह इस बार देखने को मिली है और यही इस हमले के बाद की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है।
गुरुवार को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक एक प्रतीकात्मक नहीं बल्कि रणनीतिक पहल थी। इसमें सभी प्रमुख दलों ने एकमत होकर सरकार को यह स्पष्ट संदेश दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न पर कोई मतभेद नहीं है। आतंक के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई को लेकर जो सर्वसम्मति बनी, उसने देश और दुनिया को यह संदेश दिया कि भारत अब केवल शोक और निंदा तक सीमित नहीं रहेगा। विपक्ष और सत्तापक्ष के इस एक सुर ने न केवल भारतीय राजनीति को गरिमा दी, बल्कि पाकिस्तान जैसे देशों को यह समझाने का कार्य भी किया कि भारत अब भीतर से कहीं अधिक संगठित है।
इस बार केवल सरकार या राजनीतिक दल ही नहीं, बल्कि आम जनता ने भी आतंकवाद के खिलाफ स्वर मुखर किया। घाटी के आम नागरिकों द्वारा आतंक के विरोध में सड़कों पर उतरना और हमले की भर्त्सना करना एक ऐतिहासिक संकेत है। यह वह घाटी है जिसे लंबे समय तक भय, अस्थिरता और अलगाववाद ने ग्रसित किया था। लेकिन अब बदलाव साफ नजर आ रहा है। यह बदलाव न केवल आतंकियों के लिए बल्कि उन्हें शरण देने वाले ताकतों के लिए भी एक चेतावनी है कि कश्मीर अब आतंक के लिए उर्वर भूमि नहीं रहा।
पाकिस्तान ने एक बार फिर उसी पुराने ढर्रे पर प्रतिक्रिया दी। आक्रोश, धमकी और खुद को पीड़ित बताने का प्रयास किया। शिमला समझौते को स्थगित करने और सिंधु जल संधि को युद्ध घोषणा मानने जैसी प्रतिक्रियाएं उसके भीतर की घबराहट का संकेत हैं। यदि, पाकिस्तान वास्तव में आतंकवाद से पीड़ित होता, तो वह भारत के साथ मिलकर इस हमले की निंदा करता और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई का भरोसा देता, लेकिन इसके विपरीत वह फिर एक बार आतंक को परोक्ष संरक्षण देने की मुद्रा में नजर आया।
यह विरोधाभास दर्शाता है कि पाकिस्तान की आतंक के विरुद्ध लड़ाई केवल शब्दों की लड़ाई है, असल में नहीं। जबकि भारत अब न केवल शब्दों में, बल्कि कूटनीतिक और रणनीतिक मोर्चों पर भी ठोस कार्रवाई के संकेत दे रहा है।
हमले के बाद भारत सरकार की त्वरित प्रतिक्रिया ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब रक्षात्मक नहीं, आक्रामक रणनीति अपनाने को तैयार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक मंच से कहा कि पुलवामा की तरह इस हमले के दोषियों को भी बख्शा नहीं जाएगा। वायुसेना द्वारा ‘आक्रमण अभ्यास’ के जरिए यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारत केवल कूटनीतिक विरोध तक सीमित नहीं रहेगा। रफाल और सुखोई जैसे आधुनिक युद्धक विमानों की तैनाती और तैयारी यह संकेत देती है कि यदि आवश्यकता पड़ी तो भारत प्रत्यक्ष कार्रवाई से भी पीछे नहीं हटेगा।
भारत ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी और चीन जैसे प्रभावशाली देशों के राजदूतों को बुलाकर न केवल हमले की विस्तृत जानकारी दी, बल्कि साक्ष्य भी साझा किए। यह कदम न केवल पारदर्शिता का प्रतीक था, बल्कि पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर घेरने की तैयारी का हिस्सा भी था। भारत जानता है कि अकेले सैन्य कार्रवाई पर्याप्त नहीं होगी; उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी अपने पक्ष में लाना होगा ताकि पाकिस्तान की आतंक पोषक छवि उजागर की जा सके।
सिंधु जल समझौते को आंशिक रूप से स्थगित करने की भारत की घोषणा ने पाकिस्तान को सबसे अधिक असहज किया है। यह समझौता भारत ने 1960 में नैतिक आधार पर निभाया, भले ही पाकिस्तान लगातार भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहा हो। अब जब भारत इस समझौते को पुनः समीक्षा के दायरे में लाता है, तो यह केवल जल राजनीति नहीं, बल्कि रणनीतिक दबाव का साधन बन जाता है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और कृषि संरचना सिंधु जल पर अत्यधिक निर्भर है और भारत इस दबाव का उपयोग आतंक के खिलाफ नीतिगत बदलाव लाने के लिए कर सकता है।
भारत दशकों से कहता आ रहा है कि आतंकवाद केवल कानून-व्यवस्था का नहीं, बल्कि अस्तित्व का प्रश्न है। पाकिस्तान में मौजूद आतंकी ढांचा न केवल भारत के लिए खतरा है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की शांति के लिए भी। जब तक इन ढांचों को जड़ से खत्म नहीं किया जाता, तब तक ऐसे हमले दोहराए जाते रहेंगे। भारत को चाहिए कि वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह मामला लगातार उठाता रहे और FATF जैसे मंचों पर पाकिस्तान को काली सूची में डालने के लिए लॉबिंग करे।
आज भारत-पाक संबंध बेहद तनावपूर्ण दौर में हैं। शिमला समझौता, जो भारत-पाक के संबंधों की बुनियाद माना जाता था, वह अब पाकिस्तान द्वारा ही संदेह के घेरे में लाया जा रहा है। ऐसे में, यह आवश्यक हो गया है कि भारत अपने रुख को स्पष्ट बनाए रखे—संवाद केवल तब तक जब तक आतंकवाद का समर्थन बंद न हो जाए। भारत को अब स्पष्ट रूप से यह नीति घोषित करनी चाहिए कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ ठोस और विश्वसनीय कार्रवाई नहीं करता, तब तक किसी भी प्रकार की द्विपक्षीय वार्ता का कोई औचित्य नहीं।
आज के समय में जब वैश्विक शक्तियां आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट हो रही हैं, भारत को चाहिए कि वह इस एकजुटता का लाभ उठाए। अमेरिका, फ्रांस और रूस जैसे देशों ने बार-बार भारत के आत्मरक्षा के अधिकार का समर्थन किया है। भारत को इस समर्थन को संस्थागत रूप देने की दिशा में कार्य करना होगा, जैसे संयुक्त राष्ट्र में आतंक से संबंधित प्रस्तावों को आगे बढ़ाना, पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में घसीटना और अफगानिस्तान या ईरान जैसे देशों से रणनीतिक भागीदारी बढ़ाना।
कुल मिलाकर, पहलगाम हमला केवल एक आतंकी घटना नहीं थी, बल्कि भारत की सुरक्षा, राजनीतिक इच्छाशक्ति और कूटनीति की परीक्षा थी। लेकिन इस बार भारत ने जो रुख अपनाया है, वह उम्मीद की किरण देता है। राजनीतिक दलों की एकजुटता, आम जनता की मुखरता, सरकार की निर्णायकता और सैन्य तैयारी—सभी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत अब ‘नीति’ नहीं बल्कि ‘निर्णय’ के रास्ते पर है। पाकिस्तान को यह स्पष्ट संदेश देने की आवश्यकता है कि आतंक के साथ कोई भी नरमी अब संभव नहीं। अगर वह इस दिशा में बदलाव नहीं करता, तो भारत को हर संभव रणनीतिक, सैन्य और कूटनीतिक विकल्प अपनाने चाहिए। आतंक के विरुद्ध यह निर्णायक समय है—और भारत को इसे इतिहास का मोड़ बनाना ही होगा।