जातीय और क्षेत्रीय संतुलन की सियासी चाल
देवानंद सिंह
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने बुधवार शाम को अपना कैबिनेट विस्तार किया, जिसमें सात नए मंत्रियों को शामिल किया गया। इस विस्तार में बीजेपी ने अपनी पारंपरिक जातीय और क्षेत्रीय संतुलन की रणनीति को ध्यान में रखते हुए मंत्रियों की नियुक्ति की है। इस प्रक्रिया को समझने के लिए हमें पहले इस विस्तार के राजनीतिक और सामाजिक पहलुओं पर ध्यान देना होगा।
इस बार का कैबिनेट विस्तार बीजेपी द्वारा बिहार के विभिन्न जातीय समूहों को संतुष्ट करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। नए मंत्रियों में तीन पिछड़े, दो अति पिछड़े और दो सवर्ण विधायकों को मंत्री बनाया गया है, जो बीजेपी के वोट बैंक को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से किया गया है। विस्तार में विशेष रूप से वैश्य समुदाय को प्राथमिकता दी गई है, जो बीजेपी का पारंपरिक वोट बैंक रहा है। इसके अलावा मिथिलांचल को साधने के लिए दरभंगा और सीतामढ़ी जैसे क्षेत्रों से मंत्रियों की नियुक्ति की गई है। दरभंगा से संजय सरावगी, बिहारशरीफ से सुनील कुमार, जाले से जिवेश कुमार, और साहेबगंज से राजू कुमार सिंह को मंत्री बनाया गया है।
बीजेपी ने जातीय और क्षेत्रीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए इस विस्तार को लागू किया है। मिथिलांचल से दो मंत्रियों का होना, इस क्षेत्र के लोगों को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण महसूस कराता है। मिथिलांचल की सांस्कृतिक पहचान को ध्यान में रखते हुए, संजय सरावगी और जिवेश कुमार ने मैथिली में शपथ ली और ‘पाग’ पहनकर आए, जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान है।
इस विस्तार के जरिए बीजेपी ने अपनी कोर जातियों, जैसे कि वैश्य और सवर्णों, को संतुष्ट करने की कोशिश की है। पार्टी ने यह सुनिश्चित किया है कि दोनों जातियों के नेता, जैसे संजय सरावगी और मोती लाल प्रसाद, मंत्रिमंडल में शामिल हों, जिससे बीजेपी के मजबूत समर्थन आधार को और मजबूत किया जा सके। इसके अलावा, बीजेपी ने पिछड़े और अति पिछड़े समुदायों को भी नजरअंदाज नहीं किया है। इसका उदाहरण विजय कुमार मंडल और कृष्ण कुमार मंटू की नियुक्ति है, जो क्रमशः अति पिछड़े केवट और कुर्मी जातियों से आते हैं।
इस विस्तार से यह साफ है कि बीजेपी न केवल अपनी परंपरागत जातियों को ध्यान में रख रही है, बल्कि जेडीयू के परंपरागत वोटर वर्गों को भी साधने की कोशिश कर रही है। बिहार की राजनीति में लव-कुश (कुर्मी और कुशवाहा) और अति पिछड़े समुदायों की एक बड़ी भूमिका रही है। कृष्ण कुमार मंटू का नाम इस मंत्रिमंडल में शामिल होना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे हाल ही में पटना में आयोजित कुर्मी एकता रैली में सक्रिय थे और इस रैली में कई वक्ताओं ने उन्हें भविष्य का मुख्यमंत्री भी बताया था। बिहार में नीतीश कुमार की छवि पिछले कुछ सालों में कमजोर होती जा रही है, और इसका एक प्रमुख कारण उनकी सेहत और बीजेपी के दबाव में बढ़ी भूमिका है। यह विस्तार इस बात को स्पष्ट करता है कि नीतीश कुमार अब वह ‘डोमिनेंट पार्टनर’ नहीं रहे, जो कभी कम संख्या लाकर भी मुख्यमंत्री बन गए थे। अब उनकी स्थिति ऐसी है कि उन्हें बीजेपी के दबाव के तहत निर्णय लेने पड़ रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह नीतीश की सौदेबाजी की रणनीति का हिस्सा हो सकता है, क्योंकि उनका सियासी भविष्य अब बीजेपी के साथ गठबंधन पर निर्भर करता है।
नीतीश कुमार के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण समय है, क्योंकि 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी जेडीयू तीसरे नंबर पर रही थी। इसके बावजूद, नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी सेहत के कारण बीजेपी के दबाव में आकर उन्हें अपने निर्णयों में अधिक लचीलापन दिखाना पड़ा। उनके राजनीतिक विरोधी और कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि नीतीश की व्यक्तिगत छवि अब कमजोर हो गई है, और वे अब पहले जैसे ‘सर्वमान्य’ नेता नहीं रहे। इस मंत्रिमंडल विस्तार से यह भी साफ हो गया है कि जेडीयू की संख्या अब बीजेपी से कम हो गई है। 2005 के बाद यह पहली बार है जब एनडीए सरकार में बीजेपी के मंत्रियों की संख्या जेडीयू से डेढ़ गुना अधिक हो गई है। फिलहाल, बिहार विधानसभा में बीजेपी के 80 और जेडीयू के 45 विधायक हैं। इस बदलाव को लेकर जेडीयू में खासा असंतोष है, लेकिन पार्टी के प्रवक्ता इस पर खुलकर प्रतिक्रिया देने से बच रहे हैं। जेडीयू प्रवक्ता नीरज कुमार का कहना है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पास सारे अधिकार हैं और यह उनका निर्णय है।
बीजेपी ने इस विस्तार के जरिए यह साबित किया है कि वे बिहार की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं। बीजेपी प्रवक्ता असित नाथ तिवारी का कहना है कि मंत्रिमंडल के विस्तार का अधिकार मुख्यमंत्री का है, और एनडीए के मंत्रियों के बारे में निर्णय भी गठबंधन के भीतर लिया गया है। कई राजनीतिक विश्लेषक इसे आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों से जोड़कर देख रहे हैं। बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने जातीय समीकरण को साधने के लिए यह कदम उठाया है। आरजेडी प्रवक्ता चितरंजन गगन इसे चुनावी रणनीति का हिस्सा मानते हुए कहते हैं कि यह एक चुनावी झुनझुना है, जो असल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए किया गया है। उनका मानना है कि इस विस्तार का असल उद्देश्य लोगों को यह दिखाना है कि बीजेपी अब बिहार की राजनीति में पूरी तरह से हावी है।
इस विस्तार के तीन प्रमुख संकेत हैं, पहला, नीतीश कुमार अब बीजेपी को छोड़कर नहीं जाएंगे, दूसरा, विधानसभा चुनाव समय पर होंगे और तीसरा, सीट बंटवारे में जेडीयू का अपर हैंड रहेगा। कुल मिलाकर, इस मंत्रिमंडल विस्तार से यह स्पष्ट हो गया है कि बिहार की सियासत में जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों का बड़ा महत्व है। बीजेपी ने विस्तार के जरिए अपनी कोर जातियों को संतुष्ट करने के साथ-साथ जेडीयू के परंपरागत वोटरों को भी साधने की कोशिश की है। हालांकि, यह विस्तार नीतीश कुमार की कमजोर होती छवि को भी उजागर करता है और इस बात को स्पष्ट करता है कि अब वह पहले जैसे राजनीतिक दबाव का सामना कर रहे हैं। बिहार की आगामी राजनीति में यह विस्तार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, क्योंकि यह सत्ता के समीकरणों को नए रूप में प्रस्तुत करता है।