मुफ़्त की रेवड़ियों के बजाय दीर्घकालिक विकास पर होना चाहिए फोकस
देवानंद सिंह
दिल्ली विधानसभा चुनावों को लेकर सियासी दलों द्वारा किये जा रहे वादों और मुफ़्त की योजनाओं की होड़ एक महत्वपूर्ण चर्चा का विषय बन चुकी है। चुनावी प्रचार के दौरान आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच ऐसी योजनाओं का सिलसिला जारी है, जिनका उद्देश्य मतदाताओं को लुभाना और सत्ता में अपनी जगह बनाना है। ये योजनाएं न केवल दिल्ली के नागरिकों के लिए सहायक होती हैं, बल्कि चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा भी बन गई हैं, लेकिन इन योजनाओं के पीछे की असलियत और उनके व्यावहारिक असर पर कई तरह के सवाल भी उठ रहे हैं।
याद होगा कि आम आदमी पार्टी 2015 और 2020 के चुनावों में अपनी ‘मुफ़्त’ योजनाओं के कारण भारी जीत हासिल कर चुकी है और इस बार भी उसने अपने चुनावी वादों में कई आकर्षक योजनाएं शामिल की हैं। महिलाओं को 2100 रुपये प्रति माह देने का वादा, बुजुर्गों के इलाज का पूरा खर्च उठाने की योजना और छात्र-छात्राओं को दिल्ली मेट्रो और बसों में मुफ्त यात्रा जैसी योजनाएं उसका चुनावी अभियान बना रही हैं। इस तरह के वादे न केवल उसकी कार्यप्रणाली का हिस्सा बन चुके हैं, बल्कि दिल्ली के मतदाताओं के लिए एक प्रमुख आकर्षण भी बन गए हैं।
इसी के इतर भाजपा ने भी अपने चुनावी घोषणापत्र में भी कई वादे कर डाले हैं। महिलाओं को 2500 रुपये देने, बुजुर्गों के पेंशन को 2500 रुपये प्रति माह करने, गर्भवती महिलाओं को 21 हज़ार रुपये की मदद देने और गरीब परिवारों के लिए सस्ती गैस सिलेंडर जैसी योजनाएं इसमेक शामिल हैं। इन वादों के जरिए भाजपा भी आम आदमी पार्टी से पिछड़ने नहीं चाहती है और अपनी चुनावी छवि को मजबूत करने का प्रयास कर रही है। वहीं, कांग्रेस पार्टी भी अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने के लिए मुफ़्त योजनाओं का सहारा ले रही है। उसने आम आदमी पार्टी की 200 यूनिट मुफ्त बिजली की योजना को बढ़ाकर 300 यूनिट करने का वादा किया है। इसके अलावा, उसने महिलाओं के लिए ‘प्यारी दीदी योजना’, युवाओं के लिए ‘युवा उड़ान योजना’ और महंगाई से राहत दिलाने के लिए ‘महंगाई मुक्ति योजना’ जैसी योजनाओं की घोषणा की है। कुल मिलाकर, तीनों प्रमुख दलों के बीच मुफ्त योजनाओं की होड़ साफतौर पर दिख रही है, जो आने वाले चुनावों में निर्णायक भूमिका निभा सकती है।
हालांकि, मुफ्त योजनाओं का यह सिलसिला केवल चुनावी राजनीति का हिस्सा नहीं है। भारत में पहले से कई तरह की कल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं, जिनमें गरीबों को राशन, पानी, पेंशन, चिकित्सा सुविधा आदि की उपलब्धता शामिल हैं। इन योजनाओं को शुरू करने का उद्देश्य देश के गरीब वर्ग को जीवन की बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना था, लेकिन आजकल, ये योजनाएं राजनीति का एक हिस्सा बन चुकी हैं, जिससे हर चुनाव में राजनीतिक दल वोट बैंक बनाने के लिए वादे करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन मुफ्त योजनाओं के पीछे एक गहरी समस्या छिपी हुई है। अगर, वोट पाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां बांटी जाती हैं, तो इसका मतलब यह है कि देश में ग़रीबी मौजूद है, लेकिन इसे स्वीकारने से सरकारें इनकार करती हैं। सरकारें इस ग़रीबी को दूर करने की बजाय, इसे अस्थायी रूप से शांत करने के लिए नकद सहायता और अन्य मुफ्त योजनाओं का सहारा ले रही हैं, जो बिल्कुल भी इस समस्या का स्थायी हल नहीं है।
आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो मुफ्त योजनाओं का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि सरकारें आज के छोटे फायदे के लिए भविष्य की चिंता नहीं करतीं। निश्चित रूप से इन योजनाओं के कारण राज्य सरकार का बजट संकट में पड़ सकता है। आम आदमी पार्टी द्वारा की जा रही मुफ्त योजनाओं के चलते राज्य का बजट पहले ही घाटे में जा चुका है। आने वाले दिनों में इसकी और संभावना बढ़ेगी। 2024-2025 के बजट में अनुमान है कि दिल्ली का खर्च 63,911 करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है, जबकि उसकी आय 62,415 करोड़ रुपये है। इससे यह स्पष्ट है कि दिल्ली सरकार को अपनी मुफ्त योजनाओं के लिए अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता होगी, जो दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है। ऐसी योजनाओं की सफलता का विश्लेषण करते हुए यह भी देखा गया है कि कई बार राजनीतिक दलों द्वारा किए गए वादे पूरे नहीं हो पाते। पंजाब के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि आम आदमी पार्टी को अपनी योजनाओं के लिए राज्य सरकार के पास पर्याप्त संसाधन नहीं मिल पाए। वहां महिलाओं को मुफ्त बस सेवा और 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया गया था, लेकिन राज्य सरकार इन वादों को पूरा नहीं कर पाई। इसके अलावा, केंद्र सरकार की नीति और राज्य सरकार की वित्तीय स्थिति भी इस तरह की योजनाओं के लिए बाधक बन सकती है।
इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट भी विचार कर रहा है और कुछ वकीलों ने मुफ्त योजनाओं को लेकर याचिकाएं दायर की हैं। वकीलों की मांग है कि चुनावी वादों के रूप में दिए जाने वाले इन लाभों को पारदर्शी तरीके से परिभाषित किया जाना चाहिए और चुनावी घोषणाओं के लिए एक ‘फॉर्मेट’ तैयार किया जाए, जिसमें सरकारी कर्ज़ और वादों के पूरा होने के बाद सरकार की वित्तीय स्थिति का स्पष्ट उल्लेख हो। वर्तमान में सरकारों के पास पैसे की कमी हो सकती है, लेकिन वे मुफ्त योजनाओं की आड़ में चुनावी लाभ के लिए वादे करती हैं। दिल्ली की स्थिति में, जहां बजट पहले से ही घाटे की ओर बढ़ रहा है, मुफ्त योजनाओं का दवाब और भी बढ़ जाएगा। यदि, आम आदमी पार्टी महिलाओं को हर महीने 2100 रुपए देने का वादा पूरा करती है, तो 2026 के बजट में उसे 10,000 करोड़ रुपए अतिरिक्त चाहिए होंगे। इस प्रकार, मुफ्त योजनाओं का असल में राज्य की वित्तीय स्थिति पर गहरा असर पड़ेगा और यह दीर्घकालिक विकास की योजनाओं को प्रभावित करेगा।
आखिरकार, इस विवाद का एक बड़ा पहलू यह है कि मुफ्त योजनाओं के माध्यम से नागरिकों को अस्थायी राहत तो मिल सकती है, लेकिन ये योजनाएं लंबे समय तक उनके जीवन स्तर को सुधारने में मददगार नहीं साबित होतीं। जब तक सरकारें स्थायी रोजगार सृजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और आधारभूत ढांचे में निवेश नहीं करतीं, तब तक ये योजनाएं केवल चुनावी रणनीति के रूप में काम करती रहेंगी। नागरिकों को यह समझने की जरूरत है कि उन्हें केवल तत्काल लाभ के लिए वोट नहीं देना चाहिए, बल्कि ऐसे नेताओं और सरकारों को समर्थन देना चाहिए, जो दीर्घकालिक विकास की दिशा में काम करें और देश के आर्थिक भविष्य को सुनिश्चित करें।
इस समय देश में इस मुद्दे पर गंभीर बहस हो रही है और जनता के बीच जागरूकता फैलाने की जरूरत है ताकि वे यह समझ सकें कि मुफ्त की रेवड़ियां केवल चुनावी हथकंडा नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता के लिए चुनौती बन सकती हैं।