आदिवासी वोटर्स का भरोसा
देवानंद सिंह
झारखंड विधानसभा चुनाव में जीत के साथ महागठबंधन की शानदार वापसी के बाद यह सवाल तेजी से उठ रहा है कि आखिर क्या वजह रही कि महागठबंधन की एक बार फिर वापसी हो गई, यह पहली बार है, जब कोई सरकार रिपीट हुई है, वह भी अच्छे मार्जिन के साथ। आकलन से यही साबित होता है कि न तो महागठबंधन, खासकर झामुमो ने आदिवासियों का भरोसा टूटने दिया और न ही आदिवासी वोटर्स ने महागठबंधन का भरोसा तोड़ा। भरोसा भी इतना किया कि सत्ता में शानदार वापसी कराई।
यह बात उल्लेखनीय है कि झारखंड राज्य की राजनीति में आदिवासी समुदाय की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। राज्य की कुल जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आदिवासी समुदाय से संबंधित है। चुनावी राजनीति में आदिवासी वोटों की ताकत का आकलन यह स्पष्ट करता है कि आदिवासी समुदाय के बिना कोई भी पार्टी राज्य में सत्ता स्थापित नहीं कर सकती। झारखंड में आदिवासी समुदाय की संख्या लगभग 26-28 प्रतिशत के आसपास है, जो राज्य की कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है। इसके अलावा, कई सीटों पर आदिवासी समुदाय का निर्णायक प्रभाव रहता है, खासकर कोल्हान क्षेत्र में। क्योंकि कुछ विधानसभा सीटें आरक्षित हैं और इन पर आदिवासी उम्मीदवार ही चुनाव लड़ते हैं।
हालांकि बताया जा रहा है कि आदिवासी समुदाय के सभी समूहों ने इंडिया गठबंधन को समान संख्या में वोट नहीं दिया, लेकिन कुल मिलाकर यह गठबंधन ही उनकी मुख्य पसंद था। राज्य में अनुसूचित जनजाति उरांव समुदाय
की कुल आबादी में जिसकी हिस्सेदारी 20 फीसदी है, जिसकी तीन चौथाई, यानी 72 फीसदी आबादी ने इंडिया गठबंधन, तो मुंडा समुदाय, जिसकी अनुसूचित जनजाति की कुल आबादी में जिसकी हिस्सेदारी 15 फीसदी है के हर 10 में से छह मतदाताओं (60 प्रतिशत) ने इंडिया गठबंधन को वोट दिया। संताल समुदाय, जो राज्य में सबसे बड़ा आदिवासी समूह है और कुल आदिवासी आबादी में जिसकी हिस्सेदारी 32 प्रतिशत है, इस समूह के 48 फीसदी वोटरों ने एनडीए गठबंधन को और 42 प्रतिशत मतदाताओं ने इंडिया गठबंधन को वोट दिया। दूसरे छोटे आदिवासी समूहों में 55 प्रतिशत ने इंडिया गठबंधन को, जबकि हर 10 में से तीन (31 फीसदी) ने एनडीए गठबंधन को वोट दिया, जिस राज्य में आदिवासी वोट कुल आबादी की एक चौथाई से ज्यादा (26-28 प्रतिशत) हो, वहां किसी भी पार्टी की चुनावी जीत में इस समुदाय का समर्थन बहुत जरूरी है।
इंडिया गठबंधन की जीत में एक और जिस चीज ने बड़ा योगदान किया, वह यह था कि एकजुट मुस्लिम वोट। 15 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले झारखंड में हर 10 में से नौ मतदाताओं (90 प्रतिशत) ने इंडिया गठबंधन को वोट दिया, जिससे इस गठबंधन की एनडीए पर निर्णायक बढ़त बनी, जबकि 12 प्रतिशत दलित वोट कमोबेश दोनों
गठबंधनों के बीच बंटा हुआ रहा। अगर, एनडीए ने सवर्णों और ओबीसी का ज्यादा वोट हासिल नहीं किया होता, तो उसकी हार का अंतर और बड़ा होता। वहीं, ओबोसी समुदाय के, जो राज्य के कुल मतदाताओं का 45 फीसदी हिस्सा हैं, एक चौथाई हिस्से (26 प्रतिशत) ने गठबंधन, तो 47 फीसदी ने एनडीए गठबंधन के पक्ष में वोट दिया। इस तरह, मुस्लिमों को अगर छोड़ दें, तो आदिवासी और गैर आदिवासी मतदाताओं के बीच हुए ध्रुवीकरण के फर्क ने इंडिया गठबंधन की जीत में मदद की। झारखंड विधानसभा चुनाव में आदिवासी वोटर्स का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि उन्हें किस पार्टी द्वारा कितना आकर्षित किया जाता है और उन्हें अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सुरक्षा का अहसास होता है।
दरअसल, झारखंड के आदिवासी समुदाय की अपनी एक अलग सांस्कृतिक पहचान है, जिसे वे हमेशा संरक्षित और सुरक्षित रखने की कोशिश करते हैं। महागठबंधन के नेतृत्व में इन समुदायों के अधिकारों की बात होती है और यह उन्हें यह महसूस कराता है कि उनकी पहचान और उनके अधिकारों को सुरक्षित रखा जाएगा। झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस जैसे दल आदिवासी हितों की बात करते रहे हैं, जो आदिवासी वोटों को आकर्षित करता है।
महागठबंधन ने अपने चुनावी घोषणापत्र में आदिवासी समुदाय की समस्याओं को प्राथमिकता देने का वादा किया है, जिससे आदिवासी वोटर्स को भरोसा मिला है कि उनके मुद्दों को प्रमुखता दी जाएगी। यह आदिवासी वोटरों के लिए एक अहम पहलू था, जिससे महागठबंधन को लाभ हुआ। झारखंड में आदिवासी समुदाय का जीवन भूमि और वनाधिकारों पर आधारित है। भूमि अधिग्रहण, वन भूमि अधिकार और जल, जंगल, ज़मीन के सवाल हमेशा आदिवासी समुदाय के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं। महागठबंधन ने इन मुद्दों को उठाते हुए यह संदेश दिया कि वे आदिवासी समुदाय के वनाधिकार और भूमि अधिकारों का सम्मान करेंगे।
विशेष रूप से, आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित क्षेत्र में भूमि का पुनः वितरण और उनकी मौलिक अधिकारों का संरक्षण महागठबंधन के घोषणापत्र में प्रमुख मुद्दा था। कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे दलों ने आदिवासी समुदाय के मामलों को प्राथमिकता देने का वादा किया, जिससे आदिवासी वोटरों ने महागठबंधन को समर्थन दिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा की राजनीति हमेशा आदिवासी समुदाय के अधिकारों और मुद्दों पर केंद्रित रही है। पार्टी के अध्यक्ष शिबू सोरेन और उनके परिवार के सदस्य आदिवासी समुदाय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिए प्रसिद्ध हैं। शिबू सोरेन के नेतृत्व में पार्टी ने हमेशा आदिवासी और पिछड़े वर्ग के मुद्दों को अपने अभियान का हिस्सा बनाया है। यह कारण भी है कि आदिवासी वोटर्स ने महागठबंधन, खासकर झारखंड मुक्ति मोर्चा को अपनी उम्मीदवारी के रूप में चुना।
झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार में आदिवासी समुदाय को अपने अधिकारों में वृद्धि और राजनीतिक पहचान का अहसास हुआ है, जिससे उनका समर्थन महागठबंधन के पक्ष में रहा। आदिवासी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा गरीब है और उन्हें सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की आवश्यकता है। महागठबंधन ने आदिवासी समुदाय के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की थी, जिनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के अवसरों को बढ़ावा देने का वादा था। महागठबंधन ने आदिवासी क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं का विस्तार करने की योजना बनाई, जैसे- स्वास्थ्य केंद्रों, विद्यालयों, और जल आपूर्ति योजनाओं का सुधार। इस प्रकार के वादे आदिवासी वोटरों को आकर्षित करने में महागठबंधन के लिए महत्वपूर्ण साबित हुए। महागठबंधन में आदिवासी समुदाय के नेताओं को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया। झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस ने आदिवासी नेताओं को प्रमुख पदों पर रखा, जिससे आदिवासी वोटर्स को यह विश्वास हुआ कि उनका वोट सही हाथों में जाएगा।
आदिवासी नेताओं की प्रमुख भूमिका और उनकी सशक्त आवाज ने आदिवासी समुदाय के बीच महागठबंधन के पक्ष में समर्थन उत्पन्न किया।
कुल मिलाकर, महागठबंधन ने आदिवासी समुदाय के मुद्दों को सही तरीके से उठाया और उन्हें यह विश्वास दिलाया कि उनका हित इस गठबंधन के सत्ता में आने के बाद संरक्षित रहेगा। जैसे कि लोग सो रहे थे चंपई के आने के बाद बिखराव में मतदान होगा इसको आदिवासी मतदाताओं ने सिरे खारिज किया इसके अलावा, आदिवासी समुदाय के नेताओं को उचित प्रतिनिधित्व और उनकी समस्याओं का समाधान करने के वादे ने भी महागठबंधन को लाभ पहुंचाया। आदिवासी वोटर्स का यह समर्थन महागठबंधन के लिए निर्णायक साबित हुआ, जो इस बात का संकेत है कि झारखंड की राजनीति में आदिवासी समुदाय की भूमिका और ताकत लगातार बढ़ रही है, इसके बाद भी महागठबंधन के नेताओं को आदिवासी वोटरों के विश्वास को बनाए रखने के लिए अपनी योजनाओं और नीतियों को और मजबूत करने की आवश्यकता होगी।