आज़ एक ग़जल के चंद अशआर आपकी मोहब्बतों की नज़र …
उसे तो अपना हिस्सा चाहिए था
मैं उसका था सो उसका चाहिए था
मिरे हिस्से वो जितना था बहुत था
मगर उसको मैं पूरा चाहिए था
हमेशा वो ही क्यों आता मनाने
कभी मुझको भी जाना चाहिए था
मैं इतने आसमां का क्या करूँगा
जरा सा हूँ जरा सा चाहिए था
तुम्हें भी कर गया खारा समुन्दर
तुम्हें झीलों पे आना चाहिए था
मोहब्बत कब किसी को बख्शती है़
जनाबे शैल बचना चाहिए था ..
……. शैलेन्द्र पान्डेय शैल …