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चाहे जो भी हो ,ज़ब्त रखने का
आख़िरी सीन है ये ड्रामे का
बस यहीं तक था मैं कहानी में
वक्त अब आ गया निकलने का
मुझसे ये शब नहीं गुजरने की
मैं बहुत देर नहीं जलने का
छोड़ कर जा रहे हैं हमराही
सिलसिला थम रहा है रस्ते का
मुझको चेहरों का एतबार नहीं
मैं नहीं आईने बदलने का
क्या कहूं अब तुम्हारे सूरज को
खा गया चांद मेरे हिस्से का
इन ने गमलों में पेड़ पाले हैं
ये न समझेंगे दुःख परिंदे का
अब ये रिश्ता भी कोई रिश्ता है
मोल हो ही न जिसमें रिश्ते का
… शैलेन्द्र पाण्डेय शैल