क्या लोकसभा चुनाव में भी मोदी-शाह के इर्द-गिर्द ही घूमती रहेगी देश की राजनीति ?
देवानंद सिंह
राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में बंपर जीत के बाद मोदी-शाह के हौंसले बुलंद हैं। इन दोनों नेताओं के हौंसले इतने बुलंद हैं कि तीनों ही राज्यों में अपनी पंसद के मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिए और कोई भी इस बात का विरोध नहीं कर पाया। इन चुनावों में जीत के जरिए मोदी-शाह ने ऐसी राजनीतिक बिसात बछाई, जिसमें कई दिग्गज चेहरों को किनारे लगा दिया गया। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में बसुंधरा राजे सिंधिया जैसे दिग्गजों को ऐसे हासिए पर कर दिया गया, जैसे दूध से मख्खी को अलग कर दिया गया हो। अभी और भी कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं, लिहाजा, 2024 लोकसभा चुनाव से पहले देश की राजनीति की क्या तस्वीर होगी, इसे देखना काफी अहम होगा, क्योंकि माना जा रहा है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मोदी और शाह के निशाने पर हैं, जिस तरह से हाल के दिनों में प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या ने मोदी और शाह से अलग-अलग मीटिंग की है, उससे योगी आदित्यनाथ को लेकर कयासों का बाजार और भी गर्म है, क्योंकि मोदी-शाह 2024 तक हर जगह अपने ऐसे पियादे बिठाना चाहते हैं, जो केवल उनके ईशारे पर काम कर सकें, जिस तरह से उन्होंने तमाम राज्यों में किया है।
तीन राज्यों में जिस तरह से मोदी के चेहरे पर चुनाव जीता गया है, उससे इन दोनों का आत्मविश्वास इतना बढ़ गया है कि उन्होंने छत्तीसगढ़ से लेकर राजस्थान तक के दिग्गजों को किनारे लगाने की हिम्मत कर दी। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को तो विधानसभा अध्यक्ष बनाकर बता दिया गया कि उनकी राजनीति केवल यही तक थी, हालांकि मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे का सियासी भविष्य अब भी बीच में फंसा है, क्योंकि उनको लेकर अभी कोई भी फैसला नहीं किया गया है, लेकिन यहां सवाल यह खड़ा होता है कि इस दौर में जिस तरह मोदी-शाह अपनी तरह की राजनीतिक सेट कर रहे हैं, उसमें कोई भी विरोध करने की स्थिति में क्यों नहीं है। अपने-अपने राज्यों में दिग्गज होने के बाद भी रमन सिंह, शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने पर बगावत क्यों नहीं कर पाए। इससे पहले भी कई अन्य राज्यों में इस तरह की स्थिति देखने को मिली है, जब मोदी और शाह ने अपने-अपने मन पंसद के मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति की, लेकिन कहीं से भी विरोध का सुर नहीं सुनाई दिया। इस बार भी यही हुआ। मोदी-शाह ने अपने मनपंसद के मुख्यमंत्री नियुक्ति किए और किसी ने भी चू तक नहीं की, जो अपने-आप में यह दर्शाता है कि क्या देश के राजनीति के केंद्रबिंदु में अब केवल मोदी और शाह ही बचे हैं, वो दोनों जो फैसला लेना चाहेंगे, वही होगा।
केंद्र के साथ ही राज्यों की राजनीति भी केंद्र के इशारे पर ही चलेगी। स्थिति बड़ी ही विचित्र देखने को मिली है। दरअसल, बीजेपी में जितने भी कद्दावर नेता बागी हुए, बगावत के बाद या तो उन्हें फिर से बीजेपी की ही शरण में आना पड़ा या फिर राजनीति में वो ऐसे हाशिए पर गए कि उन्हें सियासत से ही संन्यास लेना पड़ा। गुजरात में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री रहे केशुभाई पटेल इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। साल 2001 में जब केशुभाई पटेल को हटाकर नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाया गया तो 2002 चुनाव में उन्हें विधानसभा का टिकट तक नहीं मिला, हालांकि राज्य सभा के जरिए वो केंद्र की राजनीति में गए, लेकिन 2007 में उन्होंने पार्टी से बगावत कर दी और विधानसभा चुनाव में अपने समर्थकों से कांग्रेस को वोट देने की अपील की। उन्होंने तब बीजेपी की अपनी सदस्यता भी रिन्यू नहीं करवाई और साल 2012 में बीजेपी छोड़कर नई पार्टी गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाई। उस चुनाव में अपनी पार्टी से जीतने वाले वो एकलौते विधायक थे, तब उन्होंने विसवदर विधानसभा से बीजेपी के कनुभाई भलाला को मात दी थी।
जब ये तय हो गया कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब गुजरात नहीं, बल्कि दिल्ली संभालेंगे और 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद का चेहरा नरेंद्र मोदी होंगे तो केशुभाई पटेल ने अपनी पार्टी का विलय भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ कर दिया। इस लिस्ट में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी शामिल रहे हैं। उस समय बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी हुआ करते थे। साल 1999 में कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था, जिसके बाद कल्याण सिंह ने बगावत कर अपनी नई पार्टी बनाई और उनका नाम राष्ट्रीय क्रांति पार्टी रखा, हालांकि तीन साल में ही कल्याण सिंह को समझ में आ गया कि नई पार्टी के बल पर वो राजनीति में कुछ हासिल नहीं कर सकते तो 2004 में उन्होंने बीजेपी में वापसी कर ली, उन्होंने उस समय लोकसभा का चुनाव भी लड़ा और जीत भी गए, लेकिन 2009 में उन्होंने फिर से बीजेपी छोड़ दी। उन्होंने खुद समाजवादी पार्टी का समर्थन किया।
कल्याण सिंह के बेटे राजवीर तो सपा में शामिल ही हो गए और 2009 में एटा से सपा के समर्थन से निर्दलीय सांसद बने। इसके बाद मुलायम सिंह यादव से उनकी अनबन हुई तो अपनी नई पार्टी बनाने का ऐलान किया, जिसका नाम जन क्रांति पार्टी रखा, लेकिन 2014 में फिर से बीजेपी में शामिल हो गए। बेटे को बीजेपी ने सांसद बना दिया और कल्याण सिंह को राज्यपाल बनाया. बगावत की सियासत देखें तो साफ दिखता है कि बागी होकर कल्याण सिंह को कुछ भी हासिल नहीं हुआ, जबकि बीजेपी के साथ आए तो बेटे सांसद बने और खुद वो राज्यपाल बन गए। मोदी और शाह के केंद्र की राजनीति के केंद्रबिंदु में आने के बाद ऐसी स्थिति और भी बढ़ गई। अटल-आडवाणी के दौर के नेताओं को इस तरह दरकिनार कर दिया गया कि अब उनका नाम लेने वाला तक कोई नहीं है।
बात अगर, फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की करें तो राजस्थान की दो बार मुख्यमंत्री रह चुकीं वसुंधरा राजे आलाकमान की पसंद नहीं थीं। साथ ही, उनकी पैठ आरएसएस के साथ भी नहीं है। उन्हें चुनाव से पहले ही साइडलाइन कर दिया गया था।
वहीं, एमपी में बीजेपी के लिए शिवराज को साइडलाइन करना इतना आसान नहीं था। बीजेपी ने उन्हें पूरे चुनाव अभियान में पार्टी ने उन्हें हाशिए पर रखा हुआ था। यहां तक उन्हें टिकट भी काफी देर से दिया गया था। नरेंद्र सिंह तोमर के चुनाव लड़ने की जब घोषणा हुई, तब ये माना जाने लगा था कि उन्हें मुख्यमंत्री पद दिया जा सकता है, हालांकि, चुनाव प्रचार के दौरान उनके बेटे देवेंद्र सिंह का एक कथित वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वो पैसे के लिए डील कर रहे थे, इसके चलते बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम नहीं उठाया। मध्य प्रदेश में सीएम पद के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रह्लाद सिंह पटेल का नाम भी सामने आ रहा था, हालांकि, वह इस रेस में ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके।
कैलाश विजयवर्गीय भी इस मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल थे, लेकिन ओबीसी समुदाय से नहीं आते थे, इसलिए वह भी रेस में पीछे रह गए। छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने रमन सिंह को नजरअंदाज कर दिया था। राज्य में टिकट बंटवारे का फैसला केंद्रीय नेतृत्व का था, इसमें रमन सिंह की कोई भूमिका नहीं रही, उन्हें आखिरकार विधानसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपकर सम्मान सहित हाशिए पर भेज दिया गया। इसके अलावा अरुण साव को भी सीएम पद का दावेदार माना जा रहा था,
लेकिन पार्टी ने उन्हें डिप्टी सीएम बनाने का फैसला किया। कुल मिलाकर जिस तरह की राजनीतिक तस्वीर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में देखने को मिली, ऐसे में आगामी 2024 लोकसभा चुनाव को लेकर भी कई सवाल हैं, जिसमें सबसे मुख्य सवाल तो यही है कि क्या 2024 लोकसभा चुनाव की राजनीति भी केवल क्या मोदी-शाह के इर्द-गिर्द ही घूमती रहेगी।