आखिर विकास के नाम पर विनाश को दावत क्यों…..
बिशन पपोला
इस साल मानसून सीजन में हुई भारी बारिश के कारण पूरे उत्तर भारत में बाढ़ के बाद हुई तबाही ने कई सवाल खड़े कर दिए । वास्तव में, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर के साथ-साथ पंजाब, चड़ीगढ़, राजस्थान और दिल्ली में जो तबाही देखी गई, वह भविष्य के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड में बाढ़ और भूस्खलन के बाद सैकड़ों किलोमीटर सड़कें, कई पुल और सैकड़ों मकान जमीदोंज हो गए। हर साल मानसून आता है, अगर, इसी तरह से तबाही होती रहेगी तो वह दिन दूर नहीं, जब इंसान के सामने बहुत सारे संकट पैदा हो जाएंगे। पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन तक के लिए तरसना पड़ेगा, क्योंकि प्रकृति जिस तरह का रौद्र रूप दिखा रही है, वह इसी बात का संकेत दे रही है। इसीलिए जरूरी है कि विकास के नाम पर प्रकृति के नेचुरल स्वरूप से बिल्कुल भी छेड़छाड़ न की जाए
विकास की अंधाधुंध दौड़ में हम जिस तरह ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को आमंत्रण दे रहे हैं, उसमें लगातार ग्लेशियर पिघलते चले जा रहे हैं, जो भंयकर बाढ़ का कारण बन रहे हैं। उत्तराखंड के धौलीगंगा और अलकनंदा में आई बाढ़ का यही कारण था। उससे पहले केदारनाथ में आई तबाही में हजारों लोगों ने अपनी जान गवां दी थी। ये सब घटनाएं, मानव द्वारा प्रकृति के साथ की जा रही छेड़छाड़ का ही नतीजा है।
ग्लेशियरों को लेकर हाल में आई एक रिपोर्ट भी चिंता बढ़ाने वाली है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) द्वारा किए गए आकलन के मुताबिक सदी के अंत तक हिंदुकुश ग्लेशियर अपना 75 फीसदी हिस्सा खो सकते हैं, यानी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। अगर, ग्लेशियर पिघलेंगे तो उसके खतरे का आकलन लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। इस वजह से पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए पानी की भयंकर कमी पैदा हो जाएगी और साल-दर-साल बाढ़ का खतरा भी बढ़ता ही चला जाएगा। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) द्वारा किए गए आकलन के अनुसार, पिछले दशक की तुलना में इस दशक के दौरान क्षेत्र के ग्लेशियरों से लगभग 65% तेजी से बर्फ गिरी। अध्ययन में यह भी अनुमान लगाया गया है कि सदी के अंत तक, ये ग्लेशियर अपनी मात्रा का 75% तक खो सकते हैं, जिससे पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लगभग 240 मिलियन लोगों को न केवल बाढ़ के भंयकर खतरे का सामना करना पड़ेगा, बल्कि पानी की भंयकर कमी से भी जूझना पड़ेगा।
रिपोर्ट के मुताबिक ग्लेशियरों के पिघलने में वृद्धि के परिणामस्वरूप अधिक पानी की उपलब्धता तो होगी, लेकिन बाढ़ के रूप में, पर पीने के पानी की आपूर्ति कम हो जाएगी, जिससे कृषि के लिए हिमनदों के पानी और पिघली हुई बर्फ पर निर्भर समुदायों के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पैदा होंगी। इन चुनौतियों को कम करने के लिए न केवल अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और ठोस प्रयासों की आवश्यकता होगी, बल्कि उस प्रयासों पर गंभीरता के साथ अमल करने की आवश्यकता भी होगी।
भारत की तरह ही दुनिया के अन्य देशों में बाढ़, भूस्खलन जैसी घटनाएं होती हैं, हर साल ये घटनाएं घटती हैं। इसका मतलब है कि मानव और हमारी सरकारें इस बात से भली-भांति परिचित रहती हैं कि हर साल इस तरह की आपदा आएगी, लेकिन चिंताजनक बात यह है कि उसके बाद भी उचित कदम नहीं उठाए जाते हैं। जब संकट आता है, तभी हमारी सरकारें जागती हैं, जो किसी भी रूप में उचित नहीं है। प्रकृति का जिस तरह से अवैध रूप से दोहन हो रहा है, वह मानव के जीवन पर भयंकर खतरे का संकेत है। इस साल हिमाचल और उत्तराखंड में पैदा हुए हालातों ने भी सबको विचलित किया था, इसी तरह केदारनाथ और धौलीगंगा-अलकनंदा में आई बाढ़ ने भी हम सबको विचलित किया था, लेकिन उन हालातों से भी सबक लेने की जरूरत नहीं समझी जा रही है। जब चमोली के धौलीगंगा- अलकनंदा में ग्लेशियर टूटने से बाढ़ आई थी, उसका अंदेशा भू-वैज्ञानिकों को पहले से ही था।
ऐसे हादसों को लेकर भूवैज्ञानिक आठ महीने पहले आगाह भी कर चुके थे।देहरादून में स्थित वाडिया भूवैज्ञानिक संस्थान के वैज्ञानिकों ने यह चेतावनी दी थी। बकायदा, उन्होंने एक अध्ययन के जरिए जम्मू-कश्मीर के काराकोरम समेत सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों द्बारा नदियों के प्रवाह को रोकने और उससे बनने वाली झील के खतरों को लेकर यह चेतावनी जारी की थी।
वैज्ञानिकों ने 2019 में क्षेत्र में ग्लेशियरों से नदियों के प्रवाह को रोकने संबंधी शोध आइस डैम, आउटबस्ट फ्लड एंड मूवमेंट हेट्रोजेनिटी ऑफ ग्लेशियर में सेटेलाइट इमेजरी, डिजीटल मॉडल, ब्रिटिशकालीन दस्तावेज, क्षेत्रीय अध्ययन की मदद से बकायदा एक रिपोर्ट जारी की थी। इस दौरान इस इलाके में कुल 146
लेक आउटबस्ट की घटनाओं का पता लगाकर उसकी विवेचना की गई थी। शोध में पाया गया था कि हिमालय क्षेत्र की लगभग सभी घाटियों में स्थित ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। वहीं, दूसरी तरफ पीओके वाले काराकोरम क्षेत्र में कुछ
ग्लेशियरों में बर्फ की मात्रा बढ़ रही है। इस कारण ये ग्लेशियर विशेष अंतराल पर आगे बढ़कर
नदियों का मार्ग अवरुद्घ कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में ग्लेशियर के ऊपरी हिस्से की बर्फ तेजी से ग्लेशियर के निचले हिस्से की ओर आती है। कुल मिलाकर हमें ऐसी त्रासदियों को गंभीरता से लेना ही पड़ेगा। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को कम करना होगा, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के साथ ग्लेशियरों के टूटने और फटने की घटनाएं आम होती जा रही हैं,
इसीलिए ऐसी घटनाओं को कैसे कम किया जाए, इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।