चंदन शर्मा की रिपोर्ट
शत्रुघ्न प्रसाद सिंह पूर्व सांसद
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इन दिनों जनता के ज्वलंत सवालों को दरकिनार कर मजहब के जुनून में नई पीढ़ी का आतंक सरस्वती मंदिर से सड़क तक तांडव कर रहा है। हिजाब बुर्का नहीं है और न भगवा रंग ही असली रंग है। वैज्ञानिकों ने लाल, हरा और नीला रंग को ही असली रंग माना है। लाल रंग से भगवा वाले को केवल परहेज ही नहीं, बल्कि हर असली चीज से उसे नफरत है। सभ्यता, संस्कृति एवं भारत की विविधताओं की एकता से उन्हें चिढ़ है। दुनिया का हमारा यह अनोखा देश है, जहां विविधता में एकता ही उसका प्राण तत्व है। वेशभूषा, भाषा, रंग-रूप, रीति-रिवाज, जीवनस्तर, भोजन, जलवायु की विभिन्नताएं भारत की विशेषताएं हैं। उत्तरभारत और दक्षिण भारत के खानपान में अलग-अलग स्वाद है।
अमीर लोग यूरोपिया पोशाक पहनते हैं। मुस्लिम प्रभाव वाले लोगों का पोशाक, ढीले-ढाले पोशाक, रंग-बिरंगे परिधान पहनने का अपना-अपना शौक है। हमारे समाज में कोई गौर वर्ण, तो कोई श्याम वर्ण है। किन्हीं की आंखें नीली हैं, तो किन्ही के आंखें काली हैं। आज हमारे मुल्क हिंदुस्तान में पहने जा रहे राष्ट्रीय पोशाक हिंदुस्तानी नहीं है। पायजामा मुस्लिमों के प्रभाव और कुषाणों की देन है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और वर्तमान प्रधानमंत्री पायजामा ही पहनते हैं। वर्तमान मंत्रिमंडल के अधिकांश मंत्री मेरी जानकारी में रक्षा मंत्री राजनाथ को छोड़कर शायद ही धोती कोई पहनते हैं। क्या भगवाधारी माननीय प्रधानमंत्री को पजामा पहनने से मना करने का दुस्साहस कर सकते हैं? दक्षिण भारतीय सांसद, विधायक, मंत्री लुंगी ही पहनते हैं।
कुर्ता ग्रीक जाति द्वारा इस देश में लाया गया और तुर्की जबान में भी यही कुर्ता प्रचलित है। पगड़ी ईरानी है। अब तो भारत सहित अरब अफगानिस्तान एवं दुनिया के अनेक देशों में पहनावे में परिवर्तन हो रहे हैं। लड़के लड़कियों में कोई फर्क ही नहीं रह गया है। सूट-बूट, बढ़े बाल, कटे बाल, दाढ़ी और बाल कटाई, छटाई के भिन्न-भिन्न फिल्मी डिज़ाइन देखकर भौचक्के हो जाना पड़ता है। मां-बाप, पति, भाई कोई मना नहीं करते हैं। जिसकी जैसी रूचि उसका वैसा फैशन। घर के खाना का स्वाद भी बदल रहा है। ऑनलाइन आदेश दिए जा रहे हैं। पका-पकाया स्वरुचि भोजन प्रचलन बदस्तूर जारी है। इस बदलाव को तंग नजरिए से देखना मुनासिब नहीं होगा। हिजाब न तो कुरान में है और न भगवा मनुस्मृति और पुराण में है। फिर भी हंगामा क्यों बरपा है।
नथ और बालियां मुस्लिम एवं सबसे महत्वपूर्ण हिंदुस्तान के सबसे बड़े समुदाय हिंदू औरतों के लिए सुहाग का प्रतीक नथ मुस्लिम संस्कृति की देन है। रोटी न केवल मुस्लिम देशों बल्कि दुनिया के अधिकांश देशों में आम लोगों का भोजन है। इसका कोई हिंदी अथवा संस्कृत शब्द नहीं है। क्या रोटी के बिना भगवाधारी जिंदा रह सकते हैं? इसी तरह रुमाल, शाल, पुलाव, अचार, बाजूबंद, जंजीर, पाजेब मुगलों के द्वारा यहां लाया गया और आज भी इसका उपयोग हर मजहब के लोग कर रहे हैं। कुछ लोगों ने तकिया को संस्कृत में उपधान कहा, लेकिन तकिया, तकिया ही है। जो हर मजहब के बिछावन पर जाजिम और तोशक के साथ लगा रहता है। फलों में मुनक्का, बेदाना, अंजीर, सेब, अनार, खजूर, किशमिश, छुहारा, अखरोट अरब मुल्कों से अभी भी निर्यात होता है। मिठाई में जलेबी, बालूशाही, मुरब्बा, गुलाब जामुन और बर्तन में तश्तरी, चमचा, शीशी, शीशा इत्यादि। न्यायपालिका के क्षेत्रों में मुंशी, वकील, मुवक्किल, मुकदमा, जमानत, दलाल, खाता, खेसरा, तौजी, दाखिल-खारिज, तबीयत, मिजाज, दबाव, चश्मा, कुर्सी, लगाम, कबूतर, मजदूर, जल्द, बिल्कुल, बेशक, अलबत्ता, जरूर, हरगिज, करीब-करीब, वगैरह, फौरन, शायद, बावजूद, मगर, तरफ, लायक, नालायक, काबिल ऐसे हजारों लाखों शब्द हैं जो हमारे मुल्क की साझी संस्कृति में घुल मिल गये हैं। लाख प्रयास करने के बावजूद पूरी जिंदगी में ऐसे रच-बस गए हैं जिन्हें कहीं से भी छेड़छाड़ करना गैर मुनासिब होगा। कमर में दर्द है। इसका हिंदी में शुद्धतावादी लोग दूसरा अनुवाद कर ही नहीं सकते हैं।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने कहा है कि भारतीय सभ्यता के निर्माण में केवल आर्यो का ही नहीं अनार्यों का भी भारी हिस्सा है या आर्यो की ओर से उनकी भाषा ही सबसे महत्वपूर्ण बन गई थी। वह भी अनार्य उपादनों से बहुत कुछ मिश्रित होकर विशुद्ध नहीं रह सकी। हमारे बहुत से इन्हीं संस्कारों तथा सामाजिक अन्य रूढ़ियों को उदाहरणार्थ चावल, धान, इमली, नारियल, पान, धोती, साड़ी, सिंदूर, हल्दी स्वीकार कर लिया गया है।
ऐसी संस्कृति के रंग-बिरंगे फूलों को कुचल देने का पाप नहीं करना चाहिए। किसी खास मजहब से नफरत करना हमारी संस्कृति नहीं सिखाती है। विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में तो इन विविधताओं के सभी रंग-बिरंगे फूलों की सुगंध से पूरा परिसर सुवासित होता रहता है। इस संस्कृति की सुगंध को फिरकापरस्ती के नफरत से विकृत करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। हां यह सही है कि कुछ राज्य सरकारों ने विद्यालयों में खास प्रकार के पोशाक पहनने का निर्देश दिया है। निजी विद्यालयों में अपना ड्रेस कोड होता है। शिक्षण संस्थाओं में निर्धारित गणवेश जहां एक ओर समानता और भाईचारा को व्यापक बनाता है वहीं, दूसरी ओर छात्र-छात्राओं के बीच समाज में सामाजिक और आर्थिक विषमता के कारण पनप रही हीन ग्रंथियों को भी तोड़ता है।इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन जब मजहबी जुनून सिर पर सवार हो जाए तो उसका इलाज तुरंत करना होगा।
विद्यालयों, महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में पंथनिरपेक्षता, भक्ति आंदोलन के कवि सूफी संतों के वचनों की विराट सांस्कृतिक विरासत है। रसखान एक मुसलमान कवि थे। कृष्ण के प्रति उनका जरा समर्पण भाव को देखिए :-
मानुष हौं तो वहीं रसखान
वसौं ब्रज गोकुल गॉंव के ग्वारन
जौं पशु हों तो वसेरों करौं
चरौं नित नन्द के धेनु मंझारन
कोटिन हौं कलधौत के धाम
करील के कुंजन ऊपर बारों।
निर्गुण एवं शगुन के प्रति हमारा सम्मान ही हमारी विशाल संस्कृति परंपरा है। उसी प्रकार नास्तिक और आस्तिक इस समाज में जिंदादिली से रह रहे हैं। असहमति विरोध की विशद विविधतापूर्ण बगीचे में बहुरंगी फूलों से सुगंधित फुलवारी है हमारा मुल्क इसीलिए जिंदा है। आज गांधी, नेहरू शहीद-ए-आजम भगत सिंह की देशभक्ति एवं शहादत को लव जिहाद, भगवाधारी, गाय-गोबर और पांच राज्यों में हो रहे चुनाव में गन्ना, जिन्ना के जिहादी नारों से चोट पहुंचाई जा रही है। धार्मिक ध्रुवीकरण के द्वारा संवैधानिक मर्यादा सामाजिक और आर्थिक विचारधारा को दरकिनार कर वर्गीय चेतना को कुंद किया जा रहा है। आवारा पूंजी, याराना पूंजी और अब तो नकदी की जगह बिटकॉइन की आभासी दुनिया में नई पीढ़ी को भटकाव के रास्ते पर ले जाकर उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। पूंजीवाद का संकट जितना गहरा होता है, उतना ही सांप्रदायिक जातीय उन्माद की वृद्धि और इतिहास को मिटाने का कुकृत्य किया जा रहा है। छद्म देशभक्ति, गांधी के प्रति एक ओर नफरत तो दूसरी ओर उनकी चरण वंदना, नेहरू नकारा और कभी पटेल नेहरू विवाद, तो कभी बोस नेहरू की अनन्य देशभक्ति पर जब राजनीतिक सत्ता पर काबिज तथाकथित हिंदू हृदय सम्राट छल छद्म का सहारा लेकर सत्य को नंगा कर रहे हैं और सत्य का ही चोंगा पहनकर असत्य आतंक पूर्ण आभासी दुनिया का निर्माण कर रहे हैं। इसका ही दुष्परिणाम है कि कि अपसंस्कृति में पले-बढ़े लंपटों की टोली संवैधानिक मर्यादाओं के साथ छेड़छाड़ और धार्मिक स्वतंत्रता का शीलहरण कर रही है। यह खेल सत्ता के संरक्षण में चलता रहता है।
महान क्रांतिकारी ब्रेख्त हमें याद आते हैं-
“जो लोग पूंजीवाद के विरोध किए बिना फासीवाद का विरोध करते हैं, जो उस बर्बरता पर दुखी होते हैं, जो बर्बरता के कारण पैदा होती है, वह ऐसे लोगों के समान है जो बछड़े को जिबह किए बिना मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने को इच्छुक हैं, लेकिन उन्हें खून देखना नापसंद है। वे आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं जैसे कसाई मांस तोलने के पहले हाथ धो लेता है। वे संपत्ति संबंधों के खिलाफ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं वह केवल अपने आप में बर्बरता के खिलाफ हैं। हुए बर्बरता के विरुद्ध आवाज उठाते हैं और वह उन देशों में ऐसा करते हैं जहां ऐसा ही संपत्ति संबंध हावी है। जहां कसाई मांस तौलने के पहले हाथ धो लेता है।“
अदम गोंडवी ने भी कहा है-
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए
हममें कोई हून कोई शक कोई मंगोल है
दफ़न है जो बात अब उस बात को मत छेड़िए।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में भारतीय संस्कृति को सामासिक संस्कृति कहा है और रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे महामानव का सागर तीर कहा है। इसलिए ऐसी साझी संस्कृति और साझी विरासत पर हो रहे हमले को रोकना सबसे बड़ी चुनौती है।