सामंजस्य की जरूरत
देवनानंद सिंह
झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 में बीजेपी की करारी हार हुई। देश भर में बीजेपी की हवा के बाद उसका झारखंड से पतन किसी के गले नहीं उतर रहा है। यह बीजेपी के लिए चुनावी तौर बहुत बड़ा झटका तो है ही, लेकिन यह तथ्य राजनीतिक तौर पर बीजेपी के उस दम को भी कम करता जा रहा है, जिसमें उसने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। बीजेपी का यह नारा धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा है, क्योंकि जिन पांच राज्यों में बीजेपी ने अपनी सत्ता गंवाई है, उसमें कांग्रेस की या तो सीधे तौर पर भागीदारी है या फिर वह सहयोगी पार्टी के रूप में क्षेत्रीय पार्टियों को सरकार चलाने में सहयोग कर रही है।
दीगार बात है कि वर्ष 2014 के बाद से ही बीजेपी लोगों को यह समझाने में जुटी हुई थी कि एक सियासी ताकत के रूप में कांग्रेस तेजी से सिकुड़ रही है और जल्द ही यह अतीत का हिस्सा बन जाएगी, लेकिन आश्चर्य की बात यह कि जब पिछले दिनों सीएए-एनआरसी को लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ तो बीजेपी नेताओं ने एक सुर में कहा कि यह कांग्रेस ही है, जो लोगों को भड़का रही है। यानि अनजाने में उन्होंने मान लिया कि कांग्रेस की उपस्थिति देश भर में है और उसका असर जनता के एक बड़े तबके पर फिर से बढ़ता ही जा रहा है।
यह बात उतनी न सही पर काफी हद तक तो सच ही मानी जा सकती है। लगातार दो लोकसभा चुनावों में बहुत कमजोर प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस ने अपना हौंसला नहीं खोया। अभी देखने में आ रहा है कि उसने अपनी रणनीति में एक बड़ा बदलाव भी किया है। खुद को स्वाभाविक शासक समझने की मानसिकता से वह बाहर निकली और कई राज्यों में उसने किसी क्षेत्रीय पार्टी का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार किया। खुद को पीछे रखकर विपक्ष के विभिन्न दलों में एकता बनाने की यह पहलकदमी रंग ला रही है। झारखंड का उदाहरण सामने है। इससे पहले महाराष्ट्र में उसने शिवसेना के साथ जाने का फैसला किया, जो हाल तक कल्पना से परे था। अच्छी बात यह कि बिल्कुल विपरीत विचार वाले दल के साथ हाथ मिलाते हुए भी पार्टी अपनी मूल प्रस्थापनाओं पर डटी है।
महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होने से पहले उसने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर जोर दिया। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने सावरकर पर अपने विचार खुलकर व्यक्त किए और शिवसेना के विरोध के बावजूद नरमी का कोई संकेत नहीं दिया।
दरअसल, कांग्रेस के सामने अभी दोहरी चुनौती है। बीजेपी के आक्रामक हिदुत्व से आशंकित लोग कांग्रेस से वैचारिक हस्तक्षेप की उम्मीद लगाए हुए हैं। भारत में धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई का नेतृत्व करने की अपेक्षा उसके सिवाय और किसी से की भी नहीं जा सकती, लेकिन कांग्रेस का ढांचा किसी वैचारिक लड़ाई के लिए उपयुक्त नहीं रह गया है। उसकी दूसरी लाइन के नेताओं के लिए सत्ता में बने रहना और अपनी खोई जमीन हासिल करना ज्यादा बड़ी प्राथमिकता है।
सच कहें तो कांग्रेस के लिए दोनों दायित्व बराबर के हैं। राहुल गांधी ने कांग्रेस की वैचारिक जमीन मजबूत करने की कोशिश की, जिससे पार्टी में असंतोष फैला और उसकी सियासी भूमिका प्रभावित हुई। उनके उलट कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी का जोर पार्टी ढांचे को साधे रखने पर है। कांग्रेस का भविषय इन दोनों पहलुओं के संतुलन से ही तय होना है। निश्चित ही कांग्रेस इन दो पहलुओं को साधने में सफल रहती है तो वह आने वाले दिनों में और भी मजबूती के साथ वापसी कर सकती है। लोग कहीं-न-कहीं यह मान रहे हैं कि असली शासन करना तो कांग्रेस को ही आता है।
चूंकि, जिस तरह से कांग्रेस का लगभग पूरे देश से सफाया हो गया है, उसकी भरपाई करने में वक्त लगेगा, लेकिन उसे देश की जनता के मूल विषयों को समझना होगा और उन पर वास्तविकता में काम करना होगा, तभी वह दोबारा से पूरे देश में अपना परचम लहरा सकती है। दूसरा बीजेपी के दृष्टिकोण से देखें तो उसे भी अहंकार की भावना से नहीं, बल्कि सभी के बीच सामंजस्य बनाकर शासन करना होगा, क्योंकि अहंकार के बल पर बहुत लंबा शासन नहीं किया जा सकता है।
सामंजस्य की जरूरत
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