अयोध्या प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद न केवल वर्षों पुराने हिंदू-मुस्लिम विवाद का अंत हो गया, बल्कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक मुद्दे का भी अंत हो गया है। दीगार बात है कि पिछले कई दशकों से देश की राजनीति राम मंदिर से संबंधित मुद्दे के इर्द-गिदã घूमती रही और राजनीतिक पार्टियों ने इसका खूब फायदा उठाया। अतत: विवाद का अंत होने से अब राजनीतिक पार्टियों के पास भविष्य में राम मंदिर के नाम पर राजनीति करने का चांस नहीं रहेगा। बशर्ते, बीजेपी इस प्रकरण का लाभ भविष्य में लेती रहे, क्योंकि पार्टी ने हमेशा ही राम मंदिर निर्माण को लेकर अपनी लड़ाई को फ्रंट में रखा था और अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भी इस बात को स्पष्ट किया था। कश्मीर से धारा-37० हटाने के बाद बीजेपी सरकार के लिए यह एक बड़ी कामयाबी है। विपक्षी पार्टियों की बात करें तो वे आने वाले भविष्य में राम मंदिर के नाम पर बीजेपी को घ्ोरने से बचेंगी, क्योंकि यह मामला न केवल देश के सौहार्द और सद्भाव का विषय है, बल्कि इस विवाद पर देश की सर्वोच्च अदालत ने फैसला दिया है। और समाज के हर वर्ग द्बारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सहर्ष स्वीकार भी किया गया है। ऐसे में, विपक्षी पार्टियों के पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं रहेगा, जिससे वह बीजेपी को घ्ोरने का साहस कर पाएंगी। उनके पास भी इस फैसले का समर्थन करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। विपक्षी पार्टियां हमेशा अयोध्या राम जन्म भूमि विवाद को लेकर बीजेपी को घ्ोरती रहीं और उस पर कम्युनल होने का आरोप लगाती रहीं, लेकिन इसके विपरीत इस प्रकरण को लेकर लोगों में इस बात की उत्सुकता हमेशा बरकरार रही कि वर्षों पुराने इस विवाद का अंत हो जाना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे पर कुछ करती तो नहीं हैं, लेकिन राजनीतिक रोटियां जरूर सेक लेती हैं। ऐसे में, यह प्रकरण जितना लंबा चलता रहेगा, उससे राजनीतिक पार्टियों का हित तो है, लेकिन जनता का इसमें कोई भी हित नहीं है। उम्मीद इस बात की थी कि बीजेपी के पिछले कार्यकाल में ही इस पर कोई फैसला आ जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। लोगों के साथ-साथ विपक्षियों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि बीजेपी द्बारा किया गया वादा झूठा था, लेकिन बीजेपी यह कहती रही कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है। यह उसका एकाधिकार है कि कब मामले में सुनवाई पूरी कर फैसला दे। जब इस प्रकरण पर फैसला आ ही गया है तो हर किसी राजनीतिक पार्टी के पास इसे सहर्ष स्वीकार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
वैसे तो, इस विवाद की नींव बहुत साल पहले पड़ गई थी, लेकिन 6 दिसंबर 1992 के बाद यह देश में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनकर उभरा और देश में हिंदू राजनीति को बल मिलता गया। कांग्रेस, सपा, बसपा सहित अन्य कुछ राजनीतिक पार्टियां देश में हिंदू राजनीति से हमेशा किनारा करती रहीं। उन्होंने अपनी राजनीति हमेशा ही धर्मनिरपेक्षता के आधार पर ही बरकरार रखी। कांग्रेस व सपा की राजनीति हमेशा मुस्लिमों के इर्द-गिदã घूमती रही। दोनों पार्टियों मुस्लिमों के विकास का दम भरती रहीं, लेकिन वास्तविकता में देखा जाए तो मुस्लिमों का विकास नहीं हो पाया, जबकि बीजेपी पर राम मंदिर के नाम पर हिंदू राजनीति करने का तमगा लगता रहा। इस बीच बीजेपी ने जब सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया था तो देश से धीरे-धीरे जाति, धर्म, पंथ व सम्प्रदाय की राजनीति का पतन होता गया। दूसरी पार्टियों ने अपनी विचारधारा को लिबरल करते हुए सभी वर्गों को अपनी राजनीति की धूरी में शामिल करना शुरू कर दिया। राहुल गांधी जो कभी मंदिर नहीं जाते थ्ो, उन्होंने मंदिर जाना शुरू कर दिया और जनेऊ भी पहननी शुरू कर दी थी। इसका सीधा मतलब था कि कांग्रेस द्बारा हिंदू वोट बैंक में अपनी पकड़ को मजबूत करना। यही फार्मूला यूपी में सपा, बसपा जैसी पार्टियों ने भी अपनाना शुरू कर दिया था। जब देश में राम मंदिर निर्माण की मांग जोर पकड़ने लगी तो हिंदू राजनीति के विरोधियों ने अपने स्वर बदल लिये थ्ो और परिणामत: राम मंदिर का निर्माण का रास्ता साफ हो गया और राजनीतिक पार्टियों के पास रहने वाला राजनीतिक मुद्दा भी खत्म हो गया। वैसे, इस मुद्दे को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखना चाहिए। असल में, यह न तो किसी की हार है और न ही किसी की जीत। सबसे बड़ा मुद्दा देश की जीत का है। देश जीता है। हमारा लोकतंत्र जीता है। जब भारत में विभिन्न सम्प्रदाय के लोग रहते हों तो निश्चित ही सामाजिक सौहार्द को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होती है और देश के सबसे बड़े कम्युनल मुद्दे के सहज तरीके से समा’ होने पर जिस प्रकार समाज के हर वर्ग ने सामाजिक सौहार्द का परिचय दिया है, वह अपने-आप में दुनियाभर के लिए एक मिसाल है। राजनीतिक पार्टियां भले ही यह सोचती होंगी कि अब उनके राजनीतिक मुद्दे के भी एक बड़े अध्याय का समापन हो गया है, लेकिन मुद्दे के समापन के साथ ही हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच की दूरियां भी कम हुईं हैं। ऐसे में, इस बात की भी उम्मीद बढ़ जाती है कि दोनों समुदाय आपसी सामंजस्य बनाकर मंदिर और मस्जिद निर्माण में अपना-अपना सहयोग दें।