बस आज कुछ शिकायत…
सोनी सुगंधा
सब जानकर भी कैसे यूँ अनजान बने हो,
रहकर के घर में अपने ही मेहमान बने हो।
सहमी हुई थी सांसे मुश्किल थी ज़िन्दगी,
ख़ामोशियों में होठों की मुस्कान बने हो।
मुझको पता है तुम भी उलझन में हो मगर
दिल की छुपा के मुझसे क्यूँ आसान बने हो।
दुनिया चला रहे हो तुम बैठे-बैठे मन में,
किसको ख़बर है किसकी तुम जान बने हो।
पापों के भार से तो दुनिया दहल गई है,
इंसाफ़ के लिए ही इंसान बने हो।
व्यापक हो चर-अचर में जाने कोई न जाने,
अनबूझ पहेली की पहचान बने हो।
निर्माण का जहाँ भी तुमसे आबाद होगा,
साधन स्वरूप तुम ही निर्वाण बने हो।
@ss