एनआरसी को जोड़ दिया जाता है वोटबैंक से
एनआरसी का मुद्दा सुर्खियों में है। इसी बीच झारखंड के मुख्य मंत्री रघुवर दास ने भी कहा है कि झारखंड में एनआरसी लागू किया जाएगा। हाल ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पूर्वोत्तर के दौरे पर फिर कहा कि देश से सभी घुसपैठियों को बाहर किया जाएगा। देश में जब भी घुसपैठियों की बात आती है, उसे सीधे वोट बैंक से जोड़ दिया जाता है और इसी आधार पर इसका समर्थन और विरोध होने लगता है. भारतीय जनता पार्टी देश की इकलौती पार्टी है जो खुले तौर पर घुसपैठिये का विरोध करती है. इसके साथ शिवसेना का नाम भी जोड़ा जाना चाहिए. इन देानों ही राजनीतिक दल के चुनाव प्रचार का यह एक मुद्दा रहता है. शिवसेना को इस सूची में सशर्त इसलिये शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि उनके हिंदी प्रदेश के लोग भी मुंबई, महाराष्ट्र में घुसपैठिये ही हैं. भाजपा की ओर से लगातार कहा जाता रहा है कि सत्ता में आने के बाद देश से सभी घुसपैठियों को बाहर कर दिया जाएगा. भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह चुनाव प्रचार के दौरान कई बार कहते सुने गये हैं कि देश से घुसपैठियों को बाहर किया जाएगा. वे यह भी कहते थे कि सत्ता में आने पर कश्मीर से धारा 370 को हटाया जाएगा. किसी को लगा नहीं था कि दोबारा सत्ता में आने के इतना जल्द कश्मीर से धारा 370 हटा दिया जाएगा. अब इसी कारण देश में एनआरसी को लेकर लोग गंभीर हो गये हैं. लोगों को लगने लगा है कि एनआरसी लागू कर कम से कम तमाम घुसपैठियों को चिन्हित तो किया ही जा सकता है. इनको देश से बाहर निकाला जाना संभव इसलिये प्रतीत नहीं होता क्योंकि खासकर बंग्लादेश पहले ही कह चुका है कि वह ऐसे लोगों को अपने यहां वापस नहीं लेगा. यदि बंग्लादेश उनको स्वीकारेगा नहीं तो फिर उन लोगों का क्या होगा यह एक बड़ा सवाल जरूर है. लेकिन इस समय तो वैसे लोगों को चिन्हित किया जाना जरूरी है.
लगे हाथ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भी बोलने लगे हैं कि भारत में मुसलमानों को सताया जा रहा है. उनको असम से भगाया जा रहा है. इमरान खान इस समय पूरी दुनिया में मुसलमान-मुसलमान का जाप कर रहे हैं, लेकिन कोई उनकी सुनने वाला नहीं है. घुसपैठ केवल भारत का ही नहीं दुनिया के कई देशों के लिये गंभीर संकट बन चुका है. घुसपैठ के कारण कई देशों का डेमोग्राफ तेजी से बदल गया है. असम के बारे में भी कहा जाता है कि घुसपैठ के कारण वहां के 30 जिलों में 9 में मुसलमान देखते-देखते बहुसंख्यक हो गये हैं. साल 1985 से एनआरसी का मामला लटकाकर रखा गया है. अब सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद इसमें तेजी आई है. हम आखिर कबतक अपने प्रशासनिक निर्णयों के लिये सुप्रीम कोर्ट का मुंह देखते रहेंगे? क्या हमें इस तरह के फैसले प्रशासनिक स्तर पर ही नहीं ले लेने चाहिए? लेकिन इसके लिये जो इच्छाशक्ति चाहिए शायद उसका अभाव है. इसी के कारण हालात हाथ से निकलते जाते हैं.
जय प्रकाश राय
संपादक
चमकता आईना जमशेदपुर