क्या तालिबान सरकार को भारत मान्यता देगा ?
देवानंद सिंह
तालिबान सरकार के विदेश मंत्री भारत दौरे पर हैं। उनके भारत दौरे पर सबसे ज्यादा मिर्ची अगर किसी को लगी है तो वह पाकिस्तान है। भारत अपने चिर प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी देश को ऐसा कर उसे चिढ़ाने में भले ही सफल हो गया हो लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठना शुरू हो गया है कि क्या मान्यता देने जा रहा है भारत तालिबान सरकार को ? चीन ने तो 2021 में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से ही संपर्क बढ़ाना शुरू कर दिया था। लेकिन भारत यही काम चार साल बाद कर रहा है।
हालांकि तालिबान के साथ पिछले दो सालों में भारत के संपर्क बढ़े थे लेकिन पहली बार विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी नई दिल्ली आए हैं। मुत्तक़ी, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित आतंकवादियों की लिस्ट में शामिल हैं।
भारत दौरे के दौरान मुत्तक़ी की विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ उच्चस्तरीय बैठक हो चुकी है। भारत के विदेश मंत्री जयशंकर ने इसी बैठक में काबुल में भारत के टेक्निकल मिशन को दूतावास में बदलने की घोषणा की।
बताते चलें कि अगस्त 2021 में तालिबान के आने के बाद भारत ने काबुल में अपना दूतावास बंद कर दिया था। भारत ने अब तक दुनिया के कई देशों की तरह तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है। रूस एकमात्र देश है, जिसने तालिबान को मान्यता दी है।
जयशंकर ने इस वार्ता को ‘क्षेत्रीय स्थिरता और मज़बूती की दिशा में एक क़दम’ बताया, वहीं मुत्तक़ी ने भारत को ‘क़रीबी मित्र’ कहा और भारतीय कंपनियों को अफ़ग़ानिस्तान आने का न्योता दिया।
1990 के दशक में जब तालिबान पहली बार अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आया, तब भारत ने उसके शासन को मान्यता नहीं दी थी। लेकिन 2021 में तालिबान के दोबारा सत्ता में आने और अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पूरी तरह बदलने के बाद, भारत ने व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए सीमित संपर्क शुरू किया। आज भारत और तालिबान के बीच कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां दोनों के हित एक-दूसरे से मिलते हैं।
भारत-अफ़ग़ानिस्तान अपने साझा बयान में यह साफ़ कर चुके हैं कि दोनों का ज़ोर आतंकवाद के विरोध पर है।
तालिबान इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएसआईएस-के) को न केवल अफ़ग़ानिस्तान बल्कि पूरे इलाके़ की शांति के लिए ख़तरा बताता है। भारत भी आंतकवाद के ख़िलाफ़ अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय मंचों से आवाज़ उठाता रहा है।
भारत यह सुनिश्चित करना चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए न हो। वहीं तालिबान भी अपनी सत्ता को स्थिर करने के लिए आईएसआईएस-के जैसे संगठनों को कमज़ोर करना चाहता है।
जेएनयू के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ की पूर्व डीन और रिटायर्ड प्रोफ़ेसर अनुराधा चिनॉय की नजर में वह मुत्तक़ी की यात्रा को भारत-अफ़ग़ानिस्तान संबंधों के भविष्य के लिए एक सकारात्मक पहल से जोड़कर देख रही हैं। अनुराधा चिनॉय के मुताबिक लगता है कि अमीर ख़ान मुत्तक़ी को बुलाकर भारतीय विदेश मंत्रालय ने अच्छा क़दम उठाया है। तालिबान से अगर बातचीत नहीं की तो इस इलाक़े (दक्षिण एशिया) में अस्थिरता बढ़ सकती है क्योंकि ट्रंप बार-बार बगराम एयरबेस को वापस लेने की धमकी दे रहे हैं। ऑपरेशन सिंदूर के बाद अफ़ग़ानिस्तान ने भी भारत का समर्थन किया था। इसलिए बातचीत में दोनों के साझा हित शामिल हैं।
हालांकि अफ़ग़ानिस्तान के कई लोग भारत और तालिबान की बढ़ती क़रीबी से बहुत ख़ुश नहीं हैं। अफ़ग़ानिस्तान के पत्रकार हबीब ख़ान ने एक्स पर लिखा है, ”एक अफ़ग़ान होने के नाते मैं भारत की प्रशंसा करता हूँ क्योंकि भारत ने यहाँ कई काम किए हैं। सलमा बांध, संसद और रोड भारत ने बनवाए हैं लेकिन भारत तालिबान के साथ जिस तरह से चीज़ें सामान्य कर रहा है, उसे देखते हुए ठगा हुआ महसूस कर रहा हूँ। तालिबान एक अवैध शासन है, जिसने हमारे देश पर क़ब्ज़ा कर लिया है. इसे रोकना चाहिए।
हबीब ख़ान ने एक और पोस्ट में लिखा है, ”भारतीय पाकिस्तान से नफ़रत करते हैं लेकिन अफ़ग़ान कहीं ज़्यादा नफ़रत करते हैं। लेकिन तालिबान को आमंत्रित करना, जो पाकिस्तान के प्रॉक्सी रहे हैं, जिन्होंने आत्मघाती हमलों के ज़रिए सत्ता पर क़ब्ज़ा किया और महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया है. तालिबान को भारत के दोस्त के रूप में सोचना भ्रम पैदा करता है। यह भारत को इतिहास के ग़लत मोड पर लाता है।
2021 में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद वहाँ के विदेश मंत्री का यह पहला भारत दौरा है।
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के शासन को चार साल से ज़्यादा का समय हो गया है लेकिन वैश्विक स्तर पर अस्थिरता के कारण उसके सामने आर्थिक चुनौतियां बरकरार हैं। भारत ने 2021 से पहले लगभग 3 अरब डॉलर की सहायता से अफ़ग़ानिस्तान में बांध, सड़कें, अस्पताल और संसद भवन जैसी परियोजनाएं ज़मीन पर उतारी थीं. तालिबान को इन परियोजनाओं को बनाए रखने और अधिक आर्थिक मदद की ज़रूरत है।
भारत के पूर्व राजदूत अनिल त्रिगुणायत का भी मानना है कि भारत-अफ़ग़ानिस्तान के ‘गहरे सांस्कृतिक संबंध’ सत्ता परिवर्तन से बहुत अधिक प्रभावित नहीं होते हैं।
एक निजी चैनल (एनडीटीवी) से बातचीत में उन्होंने कहा कि भारत के लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि अफ़ग़ानिस्तान भारत का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से बहुत क़रीबी साथी रहा है। यहां तक कि तालिबान के लोग भी भारत के प्रति सम्मान रखते हैं. सरकारें भले बदलती रही हों, लेकिन आम लोगों के बीच भारत-अफ़ग़ानिस्तान का जुड़ाव हमेशा मज़बूत रहा है और यही भारत की असली ताक़त है।
त्रिगुणायत का कहना है, “भारत की मुख्य चिंता तालिबान नहीं था बल्कि पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समूह थे जो भारत के ख़िलाफ़ काम कर रहे थे। तालिबान सरकार ने भारत को यह स्पष्ट भरोसा दिया है कि उनके यहां से भारत विरोधी कोई गतिविधि नहीं होने दी जाएगी। पहले ऐसा नहीं था लेकिन अब उनका रुख़ बिल्कुल साफ़ है। उन्होंने पुलवामा हमले की भी निंदा की थी और भारत के साथ मिलकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ काम करने की इच्छा जताई है।
कूटनीतिक दृष्टि से भी देखा जाए तो जिस तरह चीन, अफ़ग़ानिस्तान में पैर पसार रहा है वह भारत की सेहत के लिए भी अच्छा नहीं है। भारत नहीं चाहता कि अफ़ग़ानिस्तान पूरी तरह चीन या पाकिस्तान के प्रभाव में आ जाए। वहीं तालिबान भी नहीं चाहता कि एक ही देश पर उसकी निर्भरता बढ़े, इसलिए वह भारत जैसे वैकल्पिक सहयोगी की तलाश में है।
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने तो साफ साफ कहा है कि यह यात्रा ‘पाकिस्तान के लिए एक झटका’ है और यह तालिबान शासन को अप्रत्यक्ष रूप से मान्यता देने की दिशा में एक अहम कदम है। अपने X पर उन्होंने
लिखा है कि यह भारत और तालिबान के संबंधों में एक नए दौर की शुरुआत है, जहां दोनों पक्ष अपने-अपने रणनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए व्यावहारिक सहयोग पर ज़ोर दे रहे हैं। चेलानी के मुताबिक़, यह यात्रा अफ़ग़ानिस्तान की क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में संभावित बदलाव का भी संकेत देती है। यह यात्रा उस समय हो रही है, जब भारत-पाकिस्तान और पाकिस्तान-तालिबान सरकार के बीच संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं।
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के हर्ष वी. पंत एक कार्यक्रम ‘दिनभर- पूरा दिन पूरी ख़बर’ में अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि पाकिस्तान के साथ संबंधों में गिरावट तालिबान को यह मौक़ा देती है कि वे अपने विकल्प खुले रखें और यह दिखाए कि अब उनका अस्तित्व पाकिस्तान पर निर्भर नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान ख़ुद को पाकिस्तान पर अत्यधिक निर्भरता से अलग एक स्वतंत्र पहचान के रूप में स्थापित कर रहा है।
तालिबान को पहले पाकिस्तान का ‘रणनीतिक सहयोगी’ माना जाता था, लेकिन हाल के वर्षों में दोनों के रिश्तों में तनाव बढ़ा है। पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में हवाई हमले भी किए हैं, जिन पर तालिबान ने कड़ा विरोध जताया है।
दक्षिण एशिया की गतिविधियों पर नज़र रखने वाले विश्लेषक माइकल कुगलमैन मुत्तक़ी की इस भारत यात्रा को भारत के लिए एक मौक़े की तरह देख रहे हैं।
माइकल कुगलमैन ने एक्स पर लिखा है कि भारत और तालिबान के रिश्तों में जो सरगर्मी दिख रही है, वह भारत की विदेश नीति के व्यावहारिक और लचीले रवैये को दर्शाती है। इससे भारत को अफ़ग़ानिस्तान में अपने हितों को बेहतर तरीके से आगे बढ़ाने और व्यक्त करने का मौक़ा मिलता है। साथ ही, यह भारत को पाकिस्तान और तालिबान के बीच बढ़ते तनाव का कूटनीतिक रूप से लाभ उठाने की भी अनुमति देता है।
हाल के सालों में भारत ने व्यावहारिक रुख़ अपनाकर तालिबान शासन से संवाद शुरू किया है लेकिन इन संबंधों को मज़बूत बनाना आसान नहीं है।
भारत ने अब तक तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है. यह स्थिति कूटनीतिक संतुलन की मांग करती है। भारत संवाद भी जारी रखना चाहता है, लेकिन मान्यता देने से बचता है ताकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उसकी छवि प्रभावित न हो।
यह सच है कि तालिबान शासन में मानवाधिकार, महिला शिक्षा और समावेशी शासन की स्थिति अब भी चिंताजनक है। इस पर तालिबान सरकार का कहना है कि वह महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करती है, लेकिन अफ़ग़ान संस्कृति और इस्लामी क़ानून की उनकी अपनी व्याख्या के मुताबिक़. पश्चिमी देश भी तालिबान शासन के प्रति सतर्क हैं। अगर भारत तालिबान से बहुत अधिक नज़दीकी बढ़ाता है, तो उसे अंतरराष्ट्रीय आलोचना झेलनी पड़ सकती है।
जेएनयू के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ की पूर्व डीन और रिटायर्ड प्रोफ़ेसर अनुराधा चिनॉय भी मानती हैं कि भारत अचानक से तालिबान को मान्यता नहीं देगा लेकिन बातचीत भी बंद नहीं की जा सकती है। यह सच है कि तालिबान ने औरतों के अधिकारों को पूरी तरह से छीन लिया है। पश्चिमी देश तालिबान पर लगातार दबाव बना रहे हैं लेकिन भारत यह जानता है कि दबाव बनाकर कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। अमेरिका सालों तक अफ़ग़ानिस्तान में रहा लेकिन महिलाओं की आज़ादी का सवाल तब भी था। यह स्पष्ट है कि बातचीत से ही मुद्दे हल किए जा सकते हैं।
द हिंदू अख़बार की डिप्लेमैटिक अफेयर्स एडिटर सुहासिनी हैदर ने एक्स पर लिखा है कि अब बड़ा सवाल यह है- अगर भारत ने काबुल में अपना दूतावास फिर से खोला है, तो क्या अब भारत तालिबान की ओर से नियुक्त राजदूत को दिल्ली में बुलाएगा ? क्या अफ़ग़ान गणराज्य के झंडे की जगह तालिबान का काला-सफे़द झंडा लहराएगा ? क्या दूतावास में तालिबान के अधिकारी काम करेंगे ? क्या भारत भी रूस की तरह तालिबान सरकार को मान्यता देगा ?
सुहासिनी हैदर द्वारा उठाए गए ये सभी सवाल महत्वपूर्ण है और आने वाले समय में ही इन सवालों के जवाब मिल पाएंगे। इसलिए इंतजार रहेगा कि भारत तालिबान के बीच बनते इस नए समीकरण में क्या कुछ नया डेवलपमेंट होता है।


