अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए निर्णायक कदम उठाने की जरूरत
देवानंद सिंह
भारत के खिलाफ पाकिस्तानियों की घृणा और युद्ध उन्माद कोई नई बात नहीं है, लेकिन हालिया पहलगाम हमले ने एक बार फिर भारत को चेताया है कि अब कड़ी प्रतिक्रिया का समय आ गया है। पाकिस्तान पहले से ही आंतरिक विद्रोह, आर्थिक दिवालियापन और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है, जो अब केवल कुछ अंतरराष्ट्रीय ताकतों की बैसाखियों के सहारे टिका है। बावजूद इसके, उसकी भारत विरोधी गतिविधियां थमने का नाम नहीं ले रही हैं।
भारत को अब प्रतिक्रिया देनी चाहिए, वह भी सोच-समझकर, रणनीतिक स्तर पर और अपनी शर्तों पर। केवल प्रतीकात्मक विरोध या बयानबाजी से नहीं, बल्कि ऐसी रणनीतिक कार्रवाई, जो पाकिस्तान को उसकी सीमाओं में समेट दे। इस संदर्भ में सिंधु जल संधि का स्थगन, पाकिस्तान के खिलाफ आर्थिक व कूटनीतिक अभियान और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसका अलगाव एक शुरुआत है, लेकिन भारत को इससे आगे भी सोचना होगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि पहलगाम हमला केवल एक आतंकी वारदात नहीं थी। इसके पीछे गहरे भू-राजनीतिक षड्यंत्र हैं। पाकिस्तान की कुटिलता को बल कौन दे रहा है, यह समझना भी जरूरी है। चीन और तुर्की, दो ऐसे देश हैं, जो पाकिस्तान को हर संभव मदद देकर उसे भारत के खिलाफ उकसा रहे हैं।
चीन ने दशकों से पाकिस्तान को हथियारों, तकनीक और आर्थिक सहायता मुहैया कराई है। पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम हो या उसकी सैन्य क्षमताओं का उन्नयन, सबमें चीन का गहरा हाथ है। 1963 में पाकिस्तान ने शक्सगाम घाटी चीन को सौंप दी थी, जिससे बीजिंग को भारत पर रणनीतिक दबाव बनाने का अवसर मिला। आज भी चीन पाकिस्तान को ड्रोन, फाइटर जेट्स और पनडुब्बियां भारी छूट पर उपलब्ध कराता है। भले ही, इन हथियारों की गुणवत्ता संदेहास्पद हो, लेकिन पाकिस्तान के लिए यह मनोवैज्ञानिक बढ़त का माध्यम बनते हैं। दूसरी ओर तुर्की है, जो पाकिस्तान को न केवल सैन्य सहायता देता है, बल्कि वैचारिक समर्थन भी प्रदान करता है। तुर्की का ‘एशिया न्यू इनिशिएटिव’ इस्लामिक देशों के साथ संबंध मजबूत करने और भारत विरोधी माहौल बनाने की कोशिश है। तुर्की से पाकिस्तान को मिलने वाली सहायता में जिहादी चाशनी घुली होती है, जिससे पाकिस्तान का कट्टरपंथ और आक्रामकता और भी बढ़ती है।
भारत के लिए यह चिंता का विषय है कि पाकिस्तान अब केवल एक विफल राष्ट्र नहीं है, बल्कि वह चीन-तुर्की गठजोड़ के सहारे खुद को फिर से भारत के खिलाफ सक्रिय करने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में, भारत को अब बहुप्रवेशीय रणनीति अपनानी चाहिए। पाकिस्तान के खिलाफ पूर्ण कूटनीतिक आक्रामकता शुरू करनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को आतंकवाद के गढ़ के रूप में निरंतर उजागर करना चाहिए। पाकिस्तान के समर्थक देशों – विशेषकर चीन और तुर्की के साथ भी भारत को अपनी रणनीति स्पष्ट करनी चाहिए। जहां आवश्यक हो, वहां उनके खिलाफ भी आर्थिक और कूटनीतिक दबाव बनाया जाए।
पाकिस्तान के आंतरिक विद्रोहों, जैसे बलूच आंदोलन, सिंध और खैबर पख्तूनख्वा की स्वायत्तता की मांगों को नैतिक समर्थन देना चाहिए।
सिंधु जल संधि को समाप्त करने की प्रक्रिया को तेज किया जाए, जिससे पाकिस्तान पर पानी का दबाव बढ़े। सीमा पार आतंकवाद का हर हमला सीधे पाकिस्तान पर लागत बढ़ाने वाले कदमों के साथ जोड़ा जाए – जैसे लक्षित सैन्य कार्रवाई, आर्थिक नाकेबंदी, और तकनीकी प्रतिरोध। भारत को अब यह समझना होगा कि पाकिस्तान कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं रहा। वह चीन और तुर्की जैसी शक्तियों का मोहरा बन चुका है। भारत को केवल पाकिस्तान नहीं, बल्कि उसे संचालित करने वाली ताकतों को भी चिह्नित कर, समग्र रणनीति बनानी होगी। यह भी स्पष्ट है कि पाकिस्तान की नापाक हरकतें तब तक जारी रहेंगी, जब तक उसे अंतरराष्ट्रीय संरक्षण मिलता रहेगा। इस संरक्षण को समाप्त करने के लिए भारत को अमेरिका, यूरोपीय संघ और खाड़ी देशों के साथ मिलकर व्यापक कूटनीतिक अभियान छेड़ना चाहिए।
भारत को अब किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। पाकिस्तान के भीतर लोकतंत्र, स्थिरता या आर्थिक सुधार की बातें महज छलावे हैं। यह एक पतनशील और कट्टरपंथी विचारधारा से ग्रसित देश है, जो अपने पतन में पूरे क्षेत्र को खींचने की क्षमता रखता है। ऐसे में, भारत को आत्मरक्षा के लिए आक्रामकता और दूरदर्शिता दोनों को मिलाकर नीति बनानी होगी। कुल मिलाकर, भारत को अपनी रणनीति प्रतिक्रिया नहीं, पहल करो के सिद्धांत पर आधारित करनी होगी। पाकिस्तान और उसके संरक्षकों को वही भाषा समझ में आती है, जो शक्ति और स्पष्टता की हो। अब वक्त आ गया है कि भारत अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए निर्णायक कदम उठाए, ताकि भविष्य में कोई भी भारत की शांति और संप्रभुता को चुनौती देने की हिम्मत न कर सके।