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    Home » लोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी केवल नेताओं की ही नहीं, बल्कि हर जागरूक नागरिक की भी
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    लोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी केवल नेताओं की ही नहीं, बल्कि हर जागरूक नागरिक की भी

    News DeskBy News DeskOctober 24, 2025No Comments8 Mins Read
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    लोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी केवल नेताओं की ही नहीं, बल्कि हर जागरूक नागरिक की भी
    देवानंद सिंह
    बिहार की राजनीति में एक बार फिर तूफ़ान खड़ा हो गया है। जन सुराज पार्टी के संस्थापक और चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर ने गत मंगलवार को पटना के शेखपुरा हाउस में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो आरोप लगाए, उन्होंने न केवल राज्य की सियासत को झकझोर दिया, बल्कि देश के चुनावी लोकतंत्र की साख पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए। किशोर ने दावा किया कि उनकी पार्टी के तीन उम्मीदवारों को डराकर-धमकाकर चुनावी मैदान से हटने के लिए मजबूर किया गया, और जिन पर उन्होंने यह आरोप लगाया, वह कोई सामान्य स्थानीय नेता नहीं, बल्कि देश के गृह मंत्री अमित शाह और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान हैं।

     

     

    किशोर का बयान सीधा और सधा हुआ था, लेकिन उसकी तीक्ष्णता ने बिहार की राजनीतिक हवा को चीर दिया। उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी को असल डर महागठबंधन से नहीं, बल्कि जन सुराज से है। यह बयान राजनीतिक तौर पर जितना साहसिक था, उतना ही चुनौतीपूर्ण भी। किशोर ने आरोप लगाया कि दानापुर सीट से जन सुराज के उम्मीदवार अखिलेश कुमार उर्फ मुत्तुर शाह को बीजेपी नेताओं ने पूरे दिन रोके रखा और उन्हें नामांकन नहीं करने दिया।

    किशोर के मुताबिक, मुत्तुर शाह को गृह मंत्री अमित शाह और प्रदेश चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान के साथ घेरा गया था। उन्होंने सवाल उठाया कि भारत के गृह मंत्री का किसी विपक्षी उम्मीदवार के साथ बैठकर क्या लेना-देना है? क्या गृह मंत्री का काम यह सुनिश्चित करना है कि विपक्ष मैदान में न टिक सके? यह प्रश्न केवल एक उम्मीदवार या एक दल का नहीं, बल्कि उस लोकतांत्रिक नैतिकता का प्रतीक है, जिस पर भारत का संविधान टिका है।

     

     

    किशोर ने अपने आरोपों को और मजबूती देने के लिए गुजरात के सूरत का उदाहरण दिया, जहां लोकसभा चुनाव के दौरान सारे उम्मीदवारों का नामांकन वापस हो गया था और बीजेपी का उम्मीदवार बिना चुनाव लड़े जीत गया था। उन्होंने कहा कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब चुनावी प्रक्रिया का यह अपमान हुआ। तब बीजेपी ने 400 पार का नारा दिया था, और नतीजे में 240 पर आकर रुक गई। अब बिहार में वही परिदृश्य दोहराने की कोशिश हो रही है।

    दरअसल, प्रशांत किशोर की राजनीति का एक अलग रंग है। वे पारंपरिक नेता नहीं हैं। चुनावी गणित, डेटा, और जनता के मूड को पढ़ने में माहिर इस व्यक्ति ने जब जन सुराज की पहल शुरू की थी, तब बहुतों ने इसे एक प्रयोग कहा था, लेकिन आज यह प्रयोग बिहार की चुनावी जमीन पर एक राजनीतिक विकल्प के रूप में खड़ा होता दिखाई दे रहा है।

    बीजेपी के लिए यह चुनौती कितनी वास्तविक है, यह तो आने वाले चुनाव नतीजे बताएंगे, लेकिन किशोर का यह आरोप कि बीजेपी विपक्षी उम्मीदवारों को मैदान से हटाने की कोशिश कर रही है, अपने आप में बेहद गंभीर है। लोकतंत्र का सबसे पवित्र तत्व स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होता है, जो तभी सुरक्षित रह सकता है, जब उम्मीदवारों को बिना डर, बिना दबाव, बिना खरीद-फरोख्त के चुनाव लड़ने का अधिकार मिले।

     

     

    किशोर ने धर्मेंद्र प्रधान पर भी सीधा निशाना साधा। उन्होंने एक तस्वीर जारी की, जिसमें प्रधान जन सुराज के उम्मीदवार डॉ. सत्य प्रकाश तिवारी के साथ नजर आ रहे हैं। किशोर के मुताबिक, तिवारी तीन दिन तक सक्रिय प्रचार करने के बाद अचानक नामांकन वापस ले लेते हैं। यह संयोग नहीं हो सकता, और यह तस्वीर उनके दावे को बल देती है कि उम्मीदवार पर दबाव डाला गया। इसी तरह गोपालगंज में डॉ. शशि शेखर सिन्हा और कुम्हरार सीट पर प्रो. के.सी. सिन्हा के साथ भी कथित रूप से यही हुआ।

    इन सभी घटनाओं के केंद्र में एक बड़ा संस्थान चुनाव आयोग खड़ा दिखाई देता है।  प्रशांत किशोर ने पूछा,  कि अगर, आप उम्मीदवारों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते तो मतदाताओं की कैसे करेंगे? यह प्रश्न सीधे उस संवैधानिक संस्था के प्रति उठाया गया है, जो भारत के लोकतंत्र की रीढ़ है।

     

     

    बीते कुछ वर्षों में विपक्षी दलों ने कई बार आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर आंच आई है। ईवीएम से लेकर आचार संहिता के पालन तक, और अब उम्मीदवारों की सुरक्षा तक, हर मोर्चे पर आयोग की जवाबदेही बढ़ती जा रही है। अगर, किसी राज्य में उम्मीदवारों को धमकाकर नामांकन वापस करवाने की घटनाएं हो रही हैं, और आयोग मौन है, तो यह मौन केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि नैतिक पतन का संकेत है।

    बिहार की राजनीति ऐतिहासिक रूप से संघर्ष, समाजवाद और जन आंदोलनों की भूमि रही है। जेपी आंदोलन से लेकर लालू-नीतीश युग तक, यहां सत्ता का खेल हमेशा विचारधारा और जनता के बीच खिंचता रहा है। लेकिन पिछले एक दशक में यह राजनीति जातीय समीकरणों और गठबंधनों के गणित में उलझ गई। इसी शून्य को भरने के लिए प्रशांत किशोर का जन सुराज प्रोजेक्ट सामने आया, जो राजनीति को जन संवाद और शासन में भागीदारी की दिशा में मोड़ने का दावा करता है।

     

     

    किशोर ने वर्षों तक विभिन्न दलों के लिए चुनावी रणनीति बनाई। नरेंद्र मोदी से लेकर ममता बनर्जी, जगनमोहन रेड्डी से लेकर नीतीश कुमार तक, लेकिन अब वे खुद उस खेल के मैदान में उतर चुके हैं, जहां उनकी हर चाल पर निगाह है। उनके आरोपों का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि वे उस तंत्र को बहुत करीब से जानते हैं।

    अगर, वे यह कह रहे हैं कि उम्मीदवारों को डराया जा रहा है, तो यह केवल राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं बल्कि चुनावी प्रक्रिया की संरचना पर सवाल है। राजनीतिक मनोविज्ञान यह बताता है कि जब कोई सत्ताधारी दल किसी उभरते विकल्प से डरता है, तो वह दो रास्ते अपनाता है या तो उसे नज़रअंदाज़ करना, या उसे रोकने के लिए हर संभव तरीका अपनाना। प्रशांत किशोर के आरोपों से यह प्रतीत होता है कि बीजेपी अब जन सुराज को सिर्फ वोटकटवा पार्टी नहीं बल्कि एक गंभीर चुनौती मानने लगी है।

    बीजेपी की रणनीति हमेशा केंद्रीकृत नियंत्रण और प्रचार-प्रधान चुनावी युद्ध की रही है। ऐसे में, यदि बिहार जैसे राज्य में एक वैकल्पिक, जमीन से जुड़े आंदोलन की जड़ें मजबूत होती हैं, तो यह सत्ता के लिए स्वाभाविक चिंता का विषय बन जाता है। किशोर ने कहा भी कि बीजेपी को महागठबंधन से नहीं, जन सुराज से डर लग रहा है। यह कथन सिर्फ राजनीतिक जुमला नहीं बल्कि एक सामाजिक संकेत है कि जनता के बीच सत्ता-विरोधी भावनाएं किस दिशा में बह रही हैं।

     

     

    भारत में लोकतंत्र का गर्व इसकी विविधता और प्रतिस्पर्धा पर टिका है। अगर, प्रतिस्पर्धा ही निष्प्रभावी कर दी जाए, तो यह लोकतंत्र नहीं, केवल प्रक्रिया मात्र रह जाता है। प्रशांत किशोर ने जिस अंदाज़ में उम्मीदवारों को घरों में बंद करने और गुंडों की नहीं, बल्कि मंत्रियों की भूमिका की बात कही, वह लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए गहरी चिंता का विषय होना चाहिए।

    लोकतंत्र केवल वोट डालने का अधिकार नहीं, बल्कि भय-मुक्त राजनीतिक भागीदारी का नाम है। यदि, कोई उम्मीदवार यह महसूस करे कि चुनाव लड़ना उसकी व्यक्तिगत सुरक्षा पर भारी पड़ सकता है, तो यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा पराभव है। भारतीय राजनीति में चुनावी नैतिकता की गिरावट कोई नई बात नहीं है। लेकिन जब यह गिरावट सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से जुड़ने लगे, तब इसका अर्थ बदल जाता है। गृह मंत्री और केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ इस तरह के आरोप लोकतांत्रिक प्रणाली में हितों के टकराव का गंभीर उदाहरण बनते हैं।

    केंद्रीय स्तर पर बैठा व्यक्ति अगर राज्य की चुनावी प्रक्रिया में दखल देता है, तो यह न केवल संघीय ढांचे को कमजोर करता है, बल्कि राज्य की स्वायत्तता पर भी चोट करता है, इसलिए यह मामला केवल बिहार की राजनीति तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चेतावनी है।

     

     

    प्रशांत किशोर का दावा है कि उनकी पार्टी के 14 उम्मीदवारों को धमकियां मिली हैं, लेकिन 240 उम्मीदवार अब भी चुनाव लड़ रहे हैं। यह संख्या बताती है कि भय के बावजूद जन सुराज का कैडर पीछे हटने को तैयार नहीं। किशोर का कहना है कि यह लड़ाई केवल चुनाव जीतने की नहीं, बल्कि लोकतंत्र को बचाने की है।यह बात अपने आप में बिहार की जनता के लिए एक आह्वान है कि क्या वे उस वैकल्पिक राजनीति को स्वीकार करने को तैयार हैं, जो सत्ता से संवाद की नहीं, बल्कि जनता से संवाद की बात करती है?

    कुल मिलाकर, प्रशांत किशोर के आरोपों की सत्यता की जांच चुनाव आयोग और न्यायपालिका को करनी होगी, लेकिन उससे पहले यह सवाल हर नागरिक से पूछा जाना चाहिए कि क्या हम सचमुच एक ऐसे लोकतंत्र में रह रहे हैं, जहां हर नागरिक और हर उम्मीदवार समान रूप से स्वतंत्र है?

    अगर, सत्ताधारी दल चुनावी प्रतिस्पर्धा से इतना डरने लगे कि विपक्ष के अस्तित्व को ही मिटाने की कोशिश करे, तो यह जीत नहीं, लोकतंत्र की हार कहलाएगी। बिहार के चुनाव अब केवल एक राज्य की लड़ाई नहीं रहे कि यह भारत के लोकतांत्रिक चरित्र की अग्निपरीक्षा बन गए हैं।यह वाक्य अब केवल एक राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि उस लोकतंत्र की आत्मा का प्रतीक बन गया है, जिसे बचाने की जिम्मेदारी अब केवल नेताओं की नहीं, बल्कि हर जागरूक नागरिक की है।

    बल्कि हर जागरूक नागरिक की भी लोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी केवल नेताओं की ही नहीं
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