देवानंद सिंह
बीते सप्ताह नीति आयोग के सीईओ बी.वी.आर. सुब्रह्मण्यम द्वारा भारत को जापान से आगे बताकर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था घोषित करने वाला बयान काफी चर्चाओं में रहा, लेकिन इसने एक नई बहस को भी जन्म दिया। महज दो दिन बाद नीति आयोग के ही सदस्य अरविंद विरमानी ने इस दावे को एक पूर्वानुमान बताते हुए कहा कि भारत 2025 के अंत तक यह स्थान प्राप्त कर सकता है। इन विरोधाभासी बयानों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारत वास्तव में जापान को पीछे छोड़ चुका है, या फिर यह बयान एक पूर्व-निर्धारित राजनीतिक एजेंडा के तहत समय से पहले किया गया दावा भर था?
सुब्रह्मण्यम ने आईएमएफ़ (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) के आंकड़ों का हवाला देते हुए दावा किया कि भारत इस वक्त 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है और जापान को पीछे छोड़ चुका है, लेकिन जब आईएमएफ़ की अप्रैल 2025 की वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक रिपोर्ट देखी जाती है, तो साफ़ होता है कि यह सिर्फ़ एक प्रोजेक्शन (पूर्वानुमान) है, वास्तविकता नहीं।
रिपोर्ट के अनुसार, भारत की अर्थव्यवस्था 2025 के अंत तक 4.187 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकती है, जबकि जापान की अर्थव्यवस्था 4.186 ट्रिलियन डॉलर रहने का अनुमान है। अंतर बहुत मामूली है और डॉलर-आधारित जीडीपी का आंकलन अक्सर विनिमय दरों, महंगाई और बाज़ार उतार-चढ़ाव से प्रभावित होता है, इसलिए किसी तिमाही या महीने की अस्थायी चाल के आधार पर दावा करना भ्रामक हो सकता है।
आंकड़ों की व्याख्या में एक और महत्वपूर्ण तत्व यह है कि सुब्रह्मण्यम ने नॉमिनल जीडीपी की बात की, जिसमें मुद्रास्फीति (महंगाई) को समायोजित नहीं किया जाता, इसके विपरीत, रियल जीडीपी को महंगाई समायोजन के साथ मापा जाता है, और यह अर्थव्यवस्था की असली ताक़त दिखाने में अधिक सक्षम होता है। आम जनता को इन तकनीकी विवरणों की जानकारी नहीं होती, और ऐसे में यह बयान जनता को भ्रमित कर सकता है।
भारत की आर्थिक प्रगति का जश्न मनाते वक्त अक्सर प्रति व्यक्ति जीडीपी की उपेक्षा की जाती है। वर्ल्डोमीटर के आंकड़ों के अनुसार 2025 के अंत तक भारत की प्रति व्यक्ति आय मात्र 2,400 डॉलर होगी, जो जापान की 33,806 डॉलर की तुलना में बहुत कम है। यह आंकड़ा स्पष्ट करता है कि आर्थिक आकार के बढ़ने के बावजूद भारत की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से तक समृद्धि नहीं पहुंची है।
विशेषज्ञ इसे औसत के पीछे छुपी ग़ैरबराबरी बताते हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, यदि भारत के शीर्ष 10 प्रतिशत अमीरों को हटा दिया जाए, तो शेष 90 प्रतिशत की आय और जीवन स्तर की स्थिति भयावह रूप से कमज़ोर दिखती है। उन्होंने एलन मस्क और जेफ़ बेज़ोस का उदाहरण देते हुए कहा कि यदि इन दो अरबपतियों को एक छोटे स्टेडियम में आम जन के साथ रखा जाए, तो पूरे स्टेडियम की औसत आय अचानक आसमान छूने लगेगी, जबकि वास्तविकता में अधिकांश लोग गरीब ही रहेंगे।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बयानबाज़ी केवल अर्थशास्त्र नहीं बल्कि राजनीति से प्रेरित है। पाकिस्तान के साथ हालिया तनाव, फिर अचानक हुए सीज़फायर और उसके बाद आई यह घोषणा, इन सभी घटनाओं को एक परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह महसूस होता है कि सरकार अपनी छवि को एक मजबूत वैश्विक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है। न केवल देश के भीतर लोगों में आत्मविश्वास भरने के लिए, बल्कि वैश्विक निवेशकों और विदेशी नीति निर्माताओं के बीच भारत की साख मजबूत करने के लिए भी इस तरह के बयानों का इस्तेमाल किया जाता है। नीति आयोग के सीईओ का कहना कि भारत महज़ 2-3 वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है, इस दिशा में एक और बड़ा दावा है, जिसे बिना आलोचनात्मक मूल्यांकन के स्वीकार करना ख़तरनाक हो सकता है।
ऐसे में, यह समझना ज़रूरी है कि जापान की अर्थव्यवस्था पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से सुस्त है, वहां की जनसंख्या तेजी से बूढ़ी हो रही है, उत्पादन स्थिर हो गया है, और नवाचार धीमा पड़ा है। 2010 में जापान की अर्थव्यवस्था 6 ट्रिलियन डॉलर थी, जो अब सिकुड़ चुकी है। वहीं भारत, जो कि एक युवा देश है, ने नॉमिनल जीडीपी में तेज़ी से वृद्धि दर्ज की है, लेकिन इस बढ़त की वास्तविकता समझने के लिए ज़रूरी है कि हम सिर्फ आंकड़ों के शीर्ष स्तर पर न रुकें, बल्कि उसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों को भी देखें।
विश्लेषकों का कहना है कि भारत की प्रति व्यक्ति आय यूरोप के कई देशों की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ी है, और भारत को एक मोनाको की तरह नहीं देखना चाहिए। वे कहते हैं कि भारत की ताक़त उसकी गति, पैमाना और रणनीतिक प्रभाव में है, ना कि प्रति व्यक्ति आय में है।
उनका यह तर्क अपनी जगह प्रासंगिक है, लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं दिखाता। गति और पैमाना ज़रूरी हैं, लेकिन यदि, उसका लाभ नीचे के 50 प्रतिशत तक नहीं पहुंच रहा, तो वह टिकाऊ विकास नहीं कहा जा सकता। IMF खुद डेटा उत्पन्न नहीं करता, बल्कि देशों से मिले आंकड़ों के आधार पर अपने प्रोजेक्शन तैयार करता है। विशेषज्ञों ने याद दिलाया कि तिमाही आंकड़े अक्सर अधूरे या भ्रामक होते हैं, खासकर भारत जैसे देश में जहां असंगठित क्षेत्र का हिस्सा बहुत बड़ा है। नोटबंदी और कोविड के बाद कई क्षेत्रों की स्थिति खराब हुई, जिसे संगठित क्षेत्र के औसत से मापा गया और इससे जीडीपी कृत्रिम रूप से ऊंचा दिखाया गया।
कुल मिलाकर, भारत का चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना एक संभावित और गर्व का विषय है, लेकिन इसे सही परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। बड़े-बड़े दावों और उत्सवों के बीच यह नहीं भूलना चाहिए कि विकास तब तक अधूरा है, जब तक वह समावेशी नहीं है। जब तक देश के अंतिम नागरिक तक आर्थिक समृद्धि का लाभ नहीं पहुंचता, तब तक चौथी, तीसरी या दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के दावे महज़ प्रतीकात्मक उपलब्धियां रहेंगे। इसलिए, भारत को आत्मश्लाघा के बजाय आत्ममंथन की आवश्यकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विकास के आंकड़ों से ज़्यादा ज़रूरी होता है, विकास का वितरण, और यहीं पर भारत को अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करनी होंगी।