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    Home » एक बार फिर सवालों के घेरे में न्यायपालिका की पारदर्शिता
    Breaking News Headlines संपादकीय

    एक बार फिर सवालों के घेरे में न्यायपालिका की पारदर्शिता

    Devanand SinghBy Devanand SinghMarch 23, 2025No Comments5 Mins Read
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    एक बार फिर सवालों के घेरे में न्यायपालिका की पारदर्शिता
    देवानंद सिंह
    दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के घर मिली नकदी के मामले ने एक बार फिर भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पारदर्शिता पर गंभीर सवाल उठाए हैं। दरअसल, जब अग्निशमन विभाग की गाड़ी जस्टिस वर्मा के आवास पर आग बुझाने के लिए गई, तो वहां भारी मात्रा में नकदी बरामद हुई, जिसने मीडिया और जनता में जबरदस्त हलचल मचा दी है। इस घटना को लेकर कानून विशेषज्ञों की तरफ से न केवल तीखी प्रतिक्रियाएं आ रहीं हैं, बल्कि न्यायिक नियुक्ति की प्रणाली में व्यापक सुधार की मांग भी की जा रही है, क्योंकि यह घटना न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने वाली है। ऐसी परिस्थिति में सटीक और अधिक पारदर्शी प्रणाली की आवश्यकता है, ताकि ऐसी घटनाएं भविष्य में न हों और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कोई आंच न आए।
    इससे जुड़ी चिंताएं केवल इस एक घटना तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह व्यापक तौर पर भारतीय न्यायपालिका के आंतरिक सिस्टम और न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर एक गंभीर सवाल उठाती है। क्या हमारे पास एक पारदर्शी और प्रभावी प्रणाली है, जो न्यायपालिका के उच्चतम मानकों को सुनिश्चित कर सके? क्या हमें अपने न्यायिक नियुक्ति के तरीके को फिर से समझने और सुधारने की आवश्यकता है? दरअसल, भारत में न्यायिक नियुक्तियों के लिए वर्तमान में ‘कॉलेजियम सिस्टम’ है, जिसे 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्थापित किया था। इस प्रणाली के तहत भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों का एक समूह उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण पर निर्णय लेता है, हालांकि इस प्रणाली को न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने वाला माना गया था, लेकिन इसमें पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी का आरोप अक्सर लगता रहा है। न्यायिक नियुक्तियों को लेकर तमाम आलोचनाएं उठती रही हैं, विशेषकर जब यह आरोप लगते हैं कि चयन प्रक्रिया में न तो पर्याप्त पारदर्शिता होती है, न ही इसे सार्वजनिक रूप से खुलासा किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप कभी-कभी यह सवाल उठता है कि क्या कुछ नियुक्तियां योग्य और पारदर्शी तरीके से की जा रही हैं?
    इन चिंताओं को दूर करने के लिए, 2014 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का प्रस्ताव रखा था, जिसका उद्देश्य कॉलेजियम प्रणाली को बदलकर उसमें गैर-न्यायिक सदस्यों को शामिल करना था। यह आयोग न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण में अधिक पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से गठित किया गया था। लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय ने 2014 में इस प्रस्ताव को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया। न्यायालय का कहना था कि यह प्रस्ताव न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करेगा और संविधान की मूल संरचना के खिलाफ है। यह कदम कई लोगों के लिए चौंकाने वाला था, क्योंकि सरकार का मानना था कि गैर-न्यायिक व्यक्तियों की उपस्थिति से न्यायिक नियुक्ति में पारदर्शिता आएगी।

    वहीं, न्यायपालिका का तर्क यह था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बरकरार रखना बेहद महत्वपूर्ण है, और यदि राजनीति या अन्य बाहरी प्रभावों का दबाव बढ़ता है, तो न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। विश्लेषकों ने इस मुद्दे पर अपनी चिंताओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है, और यह सही है कि न्यायपालिका के खिलाफ लगाए गए आरोप, भले ही वे अपुष्ट हों, लोकतंत्र की नींव को हिला सकते हैं। जब कोई न्यायाधीश किसी विवाद में फंसता है, तो उस घटना का असर न केवल उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर पड़ता है, बल्कि पूरे न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी प्रभाव डालता है। समाज में न्यायपालिका को एक उच्चतम संस्थान माना जाता है, और यदि न्यायपालिका पर आक्षेप लगते हैं, तो यह जनता की आस्था को प्रभावित करता है और अंततः लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाता है।

    आज के सोशल मीडिया के युग में कोई भी घटना मिनटों में सामने आ जाती है, और ऐसे समय में बिना पुष्टि किए खबरें फैलाना केवल अफवाहों और गलतफहमियों को जन्म देता है। यह सब न्यायपालिका की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाता है। इसलिए न्यायपालिका और मीडिया दोनों से सावधानी बरतनी चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि किसी भी आरोप के बारे में विचार करते समय प्रमाण और तथ्यों की स्पष्टता को सर्वोपरि रखा जाए। लोकतंत्र में न्यायपालिका का एक विशेष स्थान है, और यह अनिवार्य है कि हम इसे और मजबूत करें, ताकि यह अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रख सके। यदि, न्यायपालिका को इस तरह के संकट से बाहर निकालना है, तो इसे पहले से कहीं अधिक पारदर्शी, उत्तरदायी और सार्वजनिक विश्वास के योग्य बनाना होगा। इसके लिए सरकार और न्यायपालिका दोनों को मिलकर काम करना होगा।

    इन परिस्थितियों में यह समझना आवश्यक है कि न्यायपालिका का काम केवल कानूनी विवादों को हल करना नहीं है, बल्कि यह संविधान की रक्षा करना, समाज में न्याय और समानता सुनिश्चित करना और नागरिकों को उनके अधिकारों की सुरक्षा देना है। जब न्यायपालिका पर विश्वास टूटता है, तो इसका सीधा असर समाज पर पड़ता है, क्योंकि इससे कानूनी व्यवस्था की निष्पक्षता और न्यायपालिका की साख खतरे में पड़ सकती है।

    आज की तारीख में, भारतीय न्यायपालिका को ऐसी स्थिति में देखा जा रहा है, जहां उसे न केवल अपनी पारदर्शिता और निष्पक्षता को साबित करना होगा, बल्कि उसे एक ऐसे ढांचे की ओर भी बढ़ना होगा, जहां न्यायिक नियुक्तियां अधिक पारदर्शी और जवाबदेह हो सकें। यह कहना उचित होगा कि अब समय आ गया है, जब हमें न्यायिक नियुक्ति प्रणाली में व्यापक सुधार की दिशा में विचार करना चाहिए, ताकि लोकतंत्र को मजबूत किया जा सके और जनता का विश्वास बनाए रखा जा सके।हमारी न्यायिक प्रणाली के लिए यह एक अस्तित्व का संकट हो सकता है, लेकिन यदि हम इसे सुधारने और इसे और मजबूत बनाने की दिशा में कदम उठाते हैं, तो हम इस संकट से उबर सकते हैं और एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था स्थापित कर सकते हैं, जो समाज के हर वर्ग में न्याय और समानता सुनिश्चित कर सके।

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