ऑपरेशन सिंदूर पर उमर अब्दुल्ला, थरूर और ओवैसी का सरकार के साथ स्टैंड होना कई मायनों में महत्वपूर्ण
देवानंद सिंह
ऑपरेशन सिंदूर भारत के लिए न सिर्फ एक सैन्य अभियान था, बल्कि यह देश की सामूहिक चेतना, राजनीतिक परिपक्वता और सामाजिक एकता की भी अग्निपरीक्षा थी। जब उत्तरी सीमाओं पर भारतीय सेना आतंकवादी नेटवर्क को ध्वस्त करने में जुटी थी, तब देश के भीतर राजनीतिक नेतृत्व की एकजुटता ने निर्णायक भूमिका निभाई। विशेषकर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री अमर अब्दुल्ला, कांग्रेस सांसद शशि थरूर और एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं की प्रतिक्रिया ने न केवल एक राष्ट्रीय भावना को मजबूती दी, बल्कि उन शंकाओं का भी उत्तर दिया, जो अक्सर मुस्लिम नेतृत्व की देशभक्ति पर उंगलियां उठाती रही हैं।
उल्लेखनीय है कि ऑपरेशन सिंदूर भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा उत्तरी कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकी अड्डों पर सुनियोजित हमलों के साथ शुरू हुआ। यह ऑपरेशन पाकिस्तान समर्थित चरमपंथी संगठनों के विरुद्ध एक रणनीतिक प्रतिक्रिया थी, जो लगातार भारतीय सुरक्षा बलों और आम नागरिकों पर हमले कर रहे थे। केंद्र सरकार और सुरक्षा प्रतिष्ठान ने इसे न्यायिक प्रतिकार की संज्ञा दी। जब ऐसे अभियान चलाए जाते हैं, तो देश के भीतर राजनीतिक नेतृत्व का रुख विशेष महत्व रखता हैं। क्या वे इस सैन्य कार्रवाई को समर्थन देंगे या अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के चलते आलोचना करेंगे?
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री अमर अब्दुल्ला का परिवार लंबे समय से कश्मीर की राजनीति में सक्रिय रहा है, उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर पर जो बयान दिया, वह कई मायनों में निर्णायक था। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “यह कार्रवाई कश्मीरियों के खिलाफ नहीं, आतंकवाद के खिलाफ है। और एक कश्मीरी के रूप में मैं भारत सरकार के साथ खड़ा हूं। इनका यह वक्तव्य न केवल घाटी के युवाओं को सकारात्मक संकेत देता है, बल्कि कश्मीर की संवेदनशीलता को समझते हुए एक संतुलित राष्ट्रीय नेतृत्व की मिसाल भी पेश करता है। अमर अब्दुल्ला ने स्थानीय जनता की चिंताओं को नज़रअंदाज किए बिना देश की संप्रभुता के साथ अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की।
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने न केवल संसद में बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी ऑपरेशन सिंदूर का बचाव करते हुए भारत की स्थिति को तार्किक रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में अपने वक्तव्य में कहा कि यह भारत का आत्मरक्षा का अधिकार है, और आतंकवाद से लड़ाई को किसी भी धर्म या समुदाय से जोड़ना ग़लत है। थरूर की यह रणनीति वैश्विक मीडिया में भारत के विरुद्ध फैलाए जा रहे नैरेटिव को प्रभावी ढंग से चुनौती देती है। एक ओर जहां कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इस कार्रवाई को मानवाधिकार उल्लंघन की संज्ञा दे रही थीं, वहीं थरूर का हस्तक्षेप एक परिपक्व और संतुलित कूटनीतिक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया।
एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, जिन्हें अक्सर मुस्लिम मुद्दों पर मुखर आवाज के रूप में देखा जाता है, उन्होंने भी इस बार अपनी अपेक्षित आलोचना के बजाय राष्ट्रहित में खड़े होने का विकल्प चुना। उन्होंने स्पष्ट कहा कि जो भी हमारे देश के खिलाफ हथियार उठाएगा, वह हमारा नहीं हो सकता। इस कार्रवाई में अगर आतंकवादी मारे गए हैं तो मैं सरकार के साथ हूं। उनका यह बयान कई कारणों से ऐतिहासिक है। पहला, यह उस पूर्वाग्रह को तोड़ता है कि मुसलमान नेता आतंकवाद विरोधी कार्रवाई में सशंकित रहते हैं। दूसरा, यह भारतीय मुसलमानों के राष्ट्रवाद को एक नई वैचारिक मजबूती देता है। और तीसरा, यह दक्षिणपंथी नैरेटिव को भी असहज करता है, जो मुसलमानों की देशभक्ति पर लगातार प्रश्नचिन्ह लगाता रहा है।
कुल मिलाकर, इन नेताओं की प्रतिक्रियाएं मात्र बयानबाज़ी नहीं थीं, बल्कि वे राष्ट्रीय विमर्श को दिशा देने वाले विचार थे। तीनों की पृष्ठभूमि, राजनीतिक विचारधारा और वैचारिक विविधता के बावजूद, इनकी एकजुटता ने यह दिखा दिया कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई पार्टी, पंथ या प्रदेश से ऊपर है। सरकार के साथ इनके स्टैंड ने राजनीतिक ध्रुवीकरण को अस्थायी ही सही, पर शांत किया। विशेषकर सोशल मीडिया पर इनके स्टैंड को व्यापक समर्थन मिला। मुस्लिम समुदाय के भीतर यह भावना प्रबल हुई कि उनकी आवाज़ें भी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता साझा करती हैं और उन्हें संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। वहीं, जब विपक्ष के प्रभावशाली चेहरे सरकार की नीति का समर्थन करते हैं, तो उसे न केवल राजनीतिक बल्कि नैतिक वैधता भी प्राप्त होती है।
यदि, हम इस घटनाक्रम को एक बदलाव की शुरुआत मानें, तो इसका भविष्य में गहरा राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ सकता है। भारत की राजनीति में अक्सर राष्ट्रवाद को एकांगी दृष्टि से देखा जाता रहा है। परंतु यदि इस राष्ट्रवाद में विविधता, बहुलता और असहमति को भी स्थान मिले, तो यह और अधिक समावेशी हो सकता है। ऑपरेशन सिंदूर को केवल एक सैन्य उपलब्धि के रूप में देखना सीमित दृष्टिकोण होगा। यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरूकता का प्रतीक भी बना, जिसमें नेताओं की प्रतिक्रिया ने निर्णायक भूमिका निभाई। अमर अब्दुल्ला की जमीनी समझ, शशि थरूर की वैश्विक प्रस्तुति और ओवैसी की वैचारिक स्पष्टता ने एक बार फिर साबित किया कि भारत की लोकतांत्रिक ताकत उसकी विविधता में ही निहित है। इन तीन नेताओं ने न केवल सरकार की रणनीति को समर्थन देकर राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया, बल्कि भविष्य के लिए एक मिसाल भी पेश की कि राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए, चाहे राजनीतिक मतभेद कितने ही गहरे क्यों न हों।