भारत-पाकिस्तान तनाव के बीच चीन के संतुलनकारी रवैए के निहितार्थ
देवानंद सिंह
भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया सैन्य संघर्ष ने दक्षिण एशिया की भूराजनैतिक स्थिति को एक बार फिर अस्थिर कर दिया है। इस पृष्ठभूमि में चीन की भूमिका विशेष ध्यान देने योग्य है। चीन एक ऐसा देश है, जो एक ओर पाकिस्तान का ‘आयरन ब्रदर’ है, तो दूसरी ओर भारत के साथ व्यापारिक व राजनयिक संतुलन बनाने की कोशिश में भी जुटा है। चीन का यह संतुलनकारी रवैया, जहां एक तरफ उसके रणनीतिक हितों की रक्षा करता है, वहीं, दूसरी ओर उसे क्षेत्रीय विवादों में उलझने से भी बचाए रखना चाहता है, लेकिन यह संतुलन अब और अधिक जटिल होता जा रहा हैं।
चीन और पाकिस्तान के संबंधों को अक्सर सदाबहार रणनीतिक साझेदारी कहा जाता है। यह साझेदारी न केवल सैन्य और कूटनीतिक सहयोग तक सीमित है, बल्कि इसमें इंफ्रास्ट्रक्चर, ऊर्जा और जल सुरक्षा जैसे बहुआयामी क्षेत्र भी शामिल हैं। चीन पाकिस्तान में चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर के ज़रिए लगभग 62 अरब डॉलर का निवेश कर चुका है। यह परियोजना चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की रीढ़ है, जिसका उद्देश्य पश्चिमी चीन को अरब सागर के ग्वादर पोर्ट से जोड़ना है।
इस साझेदारी की तात्कालिक प्रकृति हालिया सैन्य संघर्ष के दौरान भी उजागर हुई, जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक डार ने दावा किया कि भारत के राफेल विमानों को मार गिराने में चीन निर्मित जे-10सी लड़ाकू विमानों और पीएल-15ई मिसाइलों का उपयोग हुआ। भले ही, चीन ने इन आरोपों को खारिज नहीं किया, लेकिन इस पर चुप्पी और सरकारी मीडिया में प्रकाशित सामग्री चीन की सहानुभूति को स्पष्ट करती है। चीन और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2025 में 127 अरब डॉलर तक पहुंच गया, लेकिन इसमें से भारत का व्यापार घाटा 99.2 अरब डॉलर है। यह घाटा न केवल आर्थिक असंतुलन को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि भारत अभी भी निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स और पूंजीगत वस्तुओं के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर है। इसके बावजूद भारत ने हाल के वर्षों में आत्मनिर्भर भारत पहल के तहत घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने और चीनी वस्तुओं पर निर्भरता घटाने की कोशिश की है।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद, विशेष रूप से 2020 के गलवान संघर्ष के बाद अब भी अविश्वास की भावना को मजबूत करता है। यही कारण है कि जब चीन पाकिस्तान को एयर डिफेंस सपोर्ट या मिसाइल सिस्टम्स प्रदान करता है, तो भारत इस पर संदेह की दृष्टि से देखता है, भले ही चीन स्वयं को निष्पक्ष मध्यस्थ बताता रहे।
चीन इस समय पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका जैसे देशों को रक्षा उपकरणों का प्रमुख निर्यातक बनता जा रहा है। बांग्लादेश की सेना द्वारा हाल ही में चीन से जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलें खरीदने की तैयारी, और पाकिस्तान द्वारा जे-10सी का युद्ध में उपयोग इस बढ़ती प्रवृत्ति का स्पष्ट संकेत है। मलेशिया में आयोजित एलआईएमए-2025 प्रदर्शनी में चीन द्वारा जे-10सीई और एफसी-31 जैसे टॉप एयर प्रोडक्ट का प्रदर्शन, उसकी वैश्विक रक्षा निर्यात नीति का हिस्सा है।
ऐसे में, दक्षिण एशिया में चीनी हथियारों की उपस्थिति न केवल भारत के लिए एक सुरक्षा चुनौती है, बल्कि यह क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को भी बदल सकती है। ताइवान, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी इस पर नज़र रख रहे हैं। 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत ने सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया। इसके जवाब में चीन ने पाकिस्तान की मोहमंद बांध परियोजना पर काम तेज़ कर दिया। इससे यह संकेत मिलता है कि चीन अब केवल हथियारों तक सीमित नहीं है, बल्कि जल संसाधनों को भी कूटनीतिक औज़ार की तरह इस्तेमाल कर रहा है।
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में डायमर-बाशा डैम के निर्माण को लेकर भारत ने पहले ही विरोध जताया था, लेकिन चीन इस परियोजना में अपने आर्थिक हित को प्राथमिकता देता दिख रहा है। जल संसाधनों पर नियंत्रण, आने वाले वर्षों में भारत-चीन संबंधों में एक और विवादास्पद मुद्दा बन सकता है। चीन की विदेश नीति पाकिस्तान और भारत के साथ दो अलग-अलग मार्गों पर चलती है। एक ओर, वह पाकिस्तान के साथ गहराई से रणनीतिक गठबंधन को बढ़ाता है, वहीं दूसरी ओर, भारत के साथ व्यापार और सीमित कूटनीतिक संवाद बनाए रखने की कोशिश करता है।
हाल ही, में चीन के विदेश मंत्री वांग यी और पाकिस्तान के इसहाक डार के बीच हुई बैठक में कहा गया कि चीन-पाकिस्तान सहयोग किसी तीसरे पक्ष के खिलाफ नहीं है, लेकिन भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि यह बयान केवल औपचारिक कूटनीतिक भाषा है, असल में चीन अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए पाकिस्तान का उपयोग करता है।
भारतीय विश्लेषक मानते हैं कि चीन के पास भारत के साथ स्थायी शांति का कोई कारण नहीं है। पाकिस्तान उसके लिए एक कम लागत वाला असंतुलनकारी साधन है। उनके अनुसार, भारत को रक्षा पर व्यय बढ़ाना चाहिए और चीन-पाक गठजोड़ के रणनीतिक दबाव से बाहर निकलने के लिए स्वतंत्र रणनीति बनानी चाहिए। भारत अब यूरोपीय देशों और अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी को गहराने की ओर अग्रसर है। 20 मई को अमेरिका के साथ विमान वाहक तकनीक को लेकर हुई वार्ता इस दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेत है। क्वाड जैसे मंचों के माध्यम से भारत इंडो-पैसिफिक में शक्ति संतुलन बनाए रखने के प्रयास कर रहा है।
भारत की रक्षा नीति अब दो मोर्चों पर युद्ध की संभावना को ध्यान में रखते हुए विकसित हो रही है, एक ओर चीन और दूसरी ओर पाकिस्तान। इस संदर्भ में भारत की स्वदेशी मिसाइल प्रणाली, अर्धसैनिक बलों का आधुनिकीकरण और साइबर युद्ध की तैयारी अत्यंत महत्वपूर्ण बनती जा रही है। चीन के लिए दक्षिण एशिया एक ऐसा भू-राजनीतिक क्षेत्र बन गया है, जहां उसे संतुलनकारी भूमिका निभाते हुए अपने रणनीतिक और आर्थिक हितों की रक्षा करनी है, लेकिन यह संतुलन तभी तक संभव है जब तक वह दोनों पड़ोसी देशों को समान रूप से महत्त्व दे। फिलहाल, पाकिस्तान को मिली सैन्य सहायता, सीपीईसी की प्राथमिकता, और जल परियोजनाओं में चीन की तेज़ी भारत के लिए चिंता का विषय बने हुए हैं। भारत को चाहिए कि वह चीन के साथ प्रतिस्पर्धा को स्वीकारते हुए अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता बनाए रखे। दक्षिण एशिया की स्थिरता के लिए भारत और चीन दोनों को अपने द्विपक्षीय संबंधों को सैन्य टकराव की बजाय आर्थिक और कूटनीतिक संवाद की ओर मोड़ना होगा। अन्यथा, यह त्रिकोणीय समीकरण किसी एक देश के लिए नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए अस्थिरता का कारण बन सकता है।