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    Home » जेनेरिक दवाएं लिखने के कानूनी आदेश का उजाला
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    जेनेरिक दवाएं लिखने के कानूनी आदेश का उजाला

    News DeskBy News DeskMay 9, 2025No Comments7 Mins Read
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    जेनेरिक दवाएं लिखने के कानूनी आदेश का उजाला
    -ललित गर्ग –

    सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टरों को मरीजों के लिए जेनेरिक दवाइयां लिखने एवं किसी विशेष कंपनी की दवाइयां न लिखने की नसीहत देकर न केवल गरीब मरीजों को राहत पहुंचाई है बल्कि चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त मनमानी, मूल्यहीनता, रिश्वत एवं अनैतिकता पर अंकुश लगाने की दिशा में सराहनीय एवं प्रासंगिक पहल की है। सुप्रीम कोर्ट से पहले राजस्थान उच्च न्यायालय ने भी ऐसा ही फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ संदीप मेहता, विक्रम नाथ और संजय करोल ने दवा कंपनियों से जुड़ी याचिका की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की है। इस याचिका में दवा कंपनियों पर मनमानी एवं रिश्वतखोरी का आरोप लगाया गया था। ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय ने कहा कि अगर पूरे देश में इस फैसले का पालन हो, तो इससे अहम सुधार हो सकता है।

     

    मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा-डॉक्टरों पर अक्सर दवा कंपनियों से रिश्वत लेने का आरोप लगता है। ऐसे में अगर डॉक्टर जेनेरिक दवाएं लिखेंगे, तो उनपर लगने वाले इल्जाम का मुद्दा भी हल हो जाएगा। ऐसा करने से एक बड़ी आबादी को सस्ती एवं अचूक दवाओं का लाभ मिल सकेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जेनेरिक दवाइयांे को जनव्यापी बनाने की दिशा में सार्थक पहल की है। पूरी दुनिया में जेनेरिक दवाइयांे को ज्यादा स्वीकार्य बनाने के लिए व्यापक स्तर पर काम हो रहा है, लेकिन दवा माफिया इसमें बाधाएं खड़ी कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता से दवा कंपनियों व चिकित्सकों के अपवित्र गठबंधन को तोड़ा जा सकता है, जो बड़ी आबादी की एक बड़ी समस्या का सटीक समाधान होगा।
    निश्चित ही डॉक्टर अगर सिर्फ जेनेरिक दवाएं लिखें तो दवा कंपनियों की रिश्वतखोरी बंद हो सकती है। शीर्ष अदालत उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें फार्मास्युटिकल मार्केटिंग की समान संहिता पर कानून बनने तक दवा कंपनियों की अनैतिक विपणन प्रथाओं को नियंत्रित करने के दिशा-निर्देश की मांग की गई थी। भारत में किफायती जेनेरिक दवाओं का उत्पादन एवं प्रचलन एक जीवन रेखा है, लेकिन इसके गुणवत्ता के आश्वासन को मजबूत करने के साथ डाक्टरों की मनमानी पर नियंत्रण करना होगा, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की पहल एक रोशनी बनेगा। आज जबकि देश में लाइफ़स्टाइल से जुड़ी बीमारियां तेज़ी से बढ़ रही हैं, जैसे-जैसे चिकित्सा-विज्ञान का विकास हो रहा है, नयी-नयी बीमारियां एवं उनका महंगा इलाज एवं महंगी दवाइयां बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इसलिये जेनेरिक दवाओं पर भरोसा और दुनिया में इसकी मांग, दोनों में इज़ाफ़ा हुआ है। मोदी सरकार ने जेनेरिक दवाओं को ज्यादा स्वीकार्य बनाने एवं सर्वसुलभ कराकर एक अभिनव स्वास्थ्य क्रांति का सू़त्रपात किया है।
    जेनेरिक दवाएं, जो ब्रांडेड दवाओं का सस्ता विकल्प होती हैं, वही सक्रिय तत्व (एक्टिव इंग्रेडिएंट) रखती हैं और उतनी ही प्रभावी होती हैं। फिर भी, इनका उपयोग भारत में अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि डॉक्टरों पर कोई बाध्यकारी कानून नहीं है। हालांकि, भारतीय मेडिकल काउंसिल ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, लेकिन ये बाध्यकारी नहीं, एक स्वैच्छिक संहिता है, जिसका पालन डाक्टर अपनी मर्जी से करते हैं। कोर्ट ने दवा कंपनियों की अनैतिक मार्केटिंग पर तत्काल रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करने की आवश्यकता पर बल दिया। कोर्ट की यह टिप्पणी स्वास्थ्य क्षेत्र की दिशा में एक अहम कदम हो सकता है। यहीं नहीं, आम जनता को सस्ती और सुलभ दवाओं का भी मार्ग प्रशस्त हो सकता है। भारत में दवा उद्योग एक विशाल और जटिल क्षेत्र है, जहां दवा कंपनियां अक्सर अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए अनैतिक तरीकों का सहारा लेती हैं। ये कंपनियां डॉक्टरों को मुफ्त उपहार, विदेश यात्राएं, महंगे रात्रिभोज और अन्य प्रलोभन देकर अपनी ब्रांडेड दवाओं को प्रचारित करने के लिए प्रेरित करती हैं। नतीजतन, डॉक्टर कई बार मरीजों को ऐसी दवाएं लिखते हैं, जो न केवल महंगी होती हैं, बल्कि कई बार अनावश्यक भी होती हैं। इसका सीधा असर मरीजों की जेब और स्वास्थ्य पर पड़ता है।
    सस्ती जेनेरिक दवाओं के प्रचलन को बाधिक करने की रणनीति एक वैश्विक समस्या है। भारत में जेनेरिक दवाओं की शुरूआत मोदी सरकार ने की। वैसे 2004 और 2013 के बीच अमेरिकी स्वास्थ्य प्रणाली को इससे लगभग 1.5 ट्रिलियन डॉलर की बचत हुई है। जेनेरिक कैंसर जैसी अनेक असाध्य बीमारियों की दवाओं की समय पर उपलब्धता ने ऐसे कई रोगियों की सामर्थ्य को बढ़ा दिया है। जबकि इसके विपरीत अनेक परिजनों के गंभीर व असाध्य रोगों की महंगी दवाओं एवं इलाज की वजह से लाखों लोग गरीबी की दलदल में डूब गए। कोरोना संकट के दौरान भी लोगों द्वारा घर, जमीन व जेवर बेचकर अपनों की जान बचाने की कोशिश की खबरें मीडिया में तैरती रही। लेकिन सामान्य दिनों में दवा कंपनियों की मिलीभगत व दबाव में लिखी जाने वाली महंगी दवाइयां भी गरीबों के लिये बड़ी समस्या बनती रही हैं। इसके बावजूद कि बाजार में उसी साल्ट वाली गुणवत्ता की जेनेरिक दवा सहज उपलब्ध है। कुछ समय पहले केंद्र सरकार की ओर से जेनेरिक दवाइयां लिखने की अनिवार्यता के निर्देश का अच्छा-खासा विरोध हुआ, जिसके चलते निर्णय वापस लेना पड़ा था। अब इसी चिंता को देश की शीर्ष अदालत ने अभिव्यक्त किया है, जो गरीबों को सस्ती दवाओं से इलाज का रास्ता सुगम बना देगी। जिससे गरीबों के जीवन में एक स्वास्थ्य उजाला होगा।

     

    विडम्बना एवं दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि दवा-कम्पनियां तरह-तरह के प्रलोभन व परोक्ष-अपरोक्ष लाभ देकर चिकित्सकों पर महंगी दवा लिखने का दबाव बनाती हैं, मानो सारे नैतिक मूल्यों को ताक पर रखकर धनार्जन ही एकमात्र कर्म रह गया है। जिसकी कीमत उन लोगों को चुकानी पड़ती है, जो महंगी दवा खरीदने में सक्षम नहीं होते। ऐसे में वे कर्ज लेकर या अपने रिश्तेदारों से मदद लेकर किसी तरह गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीजों का इलाज कराते हैं। इस खर्च के दबाव के चलते परिजनों को भी तमाम कष्ट उठाने पड़ते हैं। गाहे-बगाहे सरकारों ने दवा कंपनियों की बेलगाम मुनाफाखोरी रोकने को कदम उठाने की घोषणाएं तो कीं, लेकिन दवा माफिया के दबाव में समस्या का सार्थक समाधान नहीं निकल पाया। डॉक्टरों की तरफ से भी यदि इस दिशा में सहयोग मिलने लगे तो इस समस्या का समाधान किसी सीमा तक संभव हो सकता है। लेकिन विडंबना है कि ऐसा हो नहीं पा रहा है। एक संकट यह भी है कि दवा कंपनियों द्वारा प्रचार किया जाता है कि जेनेरिक दवाइयां रोग के उपचार में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं होती, यह बात आम जनता में गहरे से बिठायी हुई है।

     

    दवा कंपनियों की अनैतिक प्रथाएं केवल आर्थिक शोषण तक सीमित नहीं हैं, ये मरीजों के स्वास्थ्य और जान को भी खतरे में डालती हैं। महंगी दवाओं के प्रचार के कारण कई बार गरीब मरीज इलाज से वंचित रह जाते हैं। यदि जेनेरिक दवाओं को अनिवार्य किया जाए, तो न केवल दवाओं की कीमतें कम होंगी, बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं भी अधिक समावेशी और सुलभ बनेंगी। निस्संदेह, सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि जेनेरिक दवाइयों को प्रोत्साहन देने के उसके प्रयास क्यों सिरे नहीं चढ़ते। एक वजह यह भी है कि दवा कंपनियों की लॉबी खासी ताकतवर होती है और साम-दाम-दंड-भेद की नीति का उपयोग करके अपने उत्पादों का विपणन करने में सफल हो जाती है। निस्संदेह, लंबे उपचार व असाध्य रोगों के इलाज में दवाओं की कीमत एक प्रमुख घटक होता है। यदि दवा नियंत्रित दामों में मिल सके तो उनकी बड़ी चिंता खत्म हो सकती है। निस्संदेह, दवाओं की कीमत हमारी चिकित्सा सेवाओं के लिये एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

     

    सरकार को चाहिए कि गांव से लेकर शहरों तक जेनेरिक दवाओं के मेडिकल स्टोर बड़ी संख्या में खोले जाएं। गरीब-अनपढ़ मरीजों को जागरूक करके जेनेरिक दवाइयों के उपयोग को प्रोत्साहित करना होगा। मरीजों के परिजनों को विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि जेनेरिक दवाइयां भी उसी साल्ट से बनी होती हैं, जिससे महंगी ब्रांडेड दवाइयां बनी होती हैं। निश्चित रूप से डॉक्टरों का भी फर्ज बनता है कि वे अपने ऋषिकर्म का दायित्व निभाते हुए गरीब मरीजों को अधिक से अधिक जेनेरिक दवाइयां लिखना शुरू करें। यह उनके लिये भी परोपकार एवं पुण्य के काम जैसा होगा।

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