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    Home » कृष्ण हैं जो सार्वभौम श्रद्धा के पात्र है ,मनुष्य विचार के द्वारा उन्हें नहीं पा सकता , उन्हें पाने के लिए आत्मसमर्पण करना उचित है
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    कृष्ण हैं जो सार्वभौम श्रद्धा के पात्र है ,मनुष्य विचार के द्वारा उन्हें नहीं पा सकता , उन्हें पाने के लिए आत्मसमर्पण करना उचित है

    Devanand SinghBy Devanand SinghAugust 5, 2023No Comments3 Mins Read
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    कृष्ण हैं जो सार्वभौम श्रद्धा के पात्र है ,मनुष्य विचार के द्वारा उन्हें नहीं पा सकता , उन्हें पाने के लिए आत्मसमर्पण करना उचित है

    यह जो एक विराट सत्ता है, मैं उस सत्ता को आकर्षित कर रहा हूँ एव विराट सत्ता के द्वारा मैं स्वयं भी आकर्षित हो रहा हूँ- इस भावना में जो मनोवैज्ञानिक तत्व कार्य करता है, मनोविज्ञान की दृष्टि में उसी का नाम है- भक्ति

     

     

     

     

     

     

    आनन्दमार्ग प्रचारक संघ द्वारा आनंद मार्ग जागृति , गदरा में तीन दिवसीय सेमिनार 4 ,5एवं 6 अगस्त 2023 के अवसर पर सेमिनार के दूसरे दिन 5 अगस्त आनन्दमार्ग के वरिष्ठ आचार्य स्वरूपानंद अवधूत ने

    ने ” भक्तितत्व दृष्टि में ब्रजगोपाल एवं पार्थसारथी कृष्ण” विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ब्रजगोपाल हैं ब्रज के कृष्ण जो आन्नद के मध्य से विभिन्न अभिव्यक्ति के मध्य से मनुष्य को आगे बढाए लिए चलते हैं, सबको निज की ओर खीच रहे हैं, आन्नद के मध्य से नाचते-नाचते, झुमते-झुमते आगे बढाते चल रहे हैं। संस्कृत में ‘ब्रज’ शब्द का अर्थ है आनन्द पूर्वक चलना। वे कहीं बहुत प्यार करते है, कहीं थोडा बहुत डाँटते है, पर उससे अधिक स्नेह प्रदान करते हैं। कहीं मन में जिज्ञासा को जागरूक करा देते हैं, कहीं मन में भय का जागरण कर देते। उनके विषय में कहा गया है ” तुला वा उपमा कृष्णस्य नाहित” । तुम्हारी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनके प्यार की, उनके भाव दशा की, उनकी प्रज्ञा की, उनके ज्ञान की गंभीरता की, उनके भविष्य दृष्टि की कोई तुलना नहीं है ।

     

     

     

    भक्ति तत्व पर बोलते हुए आचार्य जी ने कहा कि इस विश्व ब्रह्माण्ड में सब ही सबको आकर्षित किए हुए है। अस्तित्वगत मुल्य हर एक का है, सब सबको आकर्षित कर रहें हैं। इस आकर्षण की आकृति में मनुष्य जब सोंचता है कि परमब्रह्म समेत यह जो विश्व ब्रह्माण्ड- सबको लेकर ही

    यह जो एक विराट सत्ता है, मैं उस सत्ता को आकर्षित कर रहा हूँ एवं विराट सत्ता के द्वारा मैं स्वयं भी आकर्षित हो रहा हूँ- इस भावना में जो मनोवैज्ञानिक तत्व कार्य करता है, मनोविज्ञान की दृष्टि में उसी का नाम है- भक्ति। ब्रजगोपाल आकर्षित कर रहे हैं। नाना प्रकार के भाव, आभास, इंगित, हँसी, सत्तागत मधुरता, बंशी की ध्वनि की मधुरता (शाब्दिक मधुरता) से, स्पार्शिक मधुरता से रूप की मधुरता से, रस की मधुरता से, गंध की मधुरता से सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर रहें हैं।

     

     

     

     

    किसी सत्ता के विराटत्व को देखकर मनुष्य के उस प्रकास के सभी गुण जब स्तम्भित हो जाते है और तब विराट सत्ता के प्रति उसकी भावना की जो सृष्टि होती है, उसे ही भक्ति कहते हैं। इसे सामान्य भक्ति कहा जाता है। परमपुरुष के सम्बन्ध में काह गया है- वे सभी ईश्वरों के ईश्वर अर्थात महेश्वर है। सभी नियंत्रकों के नियंत्रक हैं, वे परम देवता है अर्थात परम देव सभी मालिकों के मालिक हैं, वे सभी पर परे हैं । वे ब्रह्माण्ड के चरम तथा परम कारण तथा नियंता हैं, वे सबके पूजनीय हैं। सर्वोच्च विषयी है, परम द्रष्टा हैं। वे श्रेष्ठों में श्रेष्ठत्म हैं। वे एकमेवा द्वितीयम् हैं, उनमें समस्त ऐश्वर्य है जैसे अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व, प्रकाम्य एवं अन्तर्यामित्व । सभी अष्ठैश्वर्य उनमें है। वे ही तारक ब्रह्म है, वे ही पार्थसारथी

    कृष्ण हैं जो सार्वभौम श्रद्धा के पात्र है। मनुष्य विचार के द्वारा उन्हें नहीं पा सकता । उन्हें पाने के लिए आत्मसमर्पण करना उचित है।

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